ऐसे ही समय दुर्लभराय ने नान्दोल पहुँच कर नगर से बाहर अपनी छावनी डाली और फिर वह राजा से मिला। राजा अपनी भीतरी खटपटों में इतना व्यस्त था कि उसे अमीर के इस अभियान में बिलकुल रस नहीं मिला। परन्तु रस न मिलने से क्या होना था? अमीर तो दल-बादल सैन्य को लिए बढ़ा चला आ रहा था। उसके लिए दो ही मार्ग थे कि या तो मुलतान और लोहकोट के राजाओं की भाँति कायर-वृत्ति ग्रहण करे, अमीर से उत्कोच ले और उसे मार्ग दे; या फिर घोघाबापा और धर्मगजदेव की भाँति अपने कर्तव्य पर दृढ़ रहकर लोहू बहा दे। अनहिल्लराय यद्यपि इस समय गुर्जरेश्वर के अनुकूल न था, पर वह स्वयं यह आशा रखता था कि एक दिन गुजरात की गद्दी उसी के पुत्र को मिलेगी। इससे वह उसके विरुद्ध इस म्लेच्छ की सहायता नहीं कर सकता था। वह यद्यपि जैन धर्म पर आस्था रखता था और नान्दोल के राजदरबार में जैन धर्म का बोलबाला भी था, फिर भी वह जन्मजात शैव था तथा भगवान् सोमनाथ का भक्त भी। वह घोघाबापा और महाराज धर्मगजदेव के पतन से भी थर्रा उठा। सब बातों पर विचार करके वह गज़नी के सुलतान का अवरोध करने को सन्नद्ध तो हो गया, परन्तु उसे इस बात का बहुत दु:ख था कि उसने जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सैन्य का संग्रह किया था, वह तो रह ही जाएगा। उसकी सब शक्ति इस दैत्य का सामना करने में ही नष्ट हो जाएगी। फिर यह भी कौन कह सकता है कि उसकी दशा धर्मगजदेव और घोघाबापा के समान ही न हो जाए। धर्मगजदेव के सम्मुख तो उसका सैन्य बल कुछ था ही नहीं। इन सब विचारों ने उसे बड़ी भारी उलझन में डाल दिया और वह कुछ भी निर्णय न कर सका कि क्या करना चाहिए। उन दिनों नान्दोल एक समृद्ध नगर था। उसमें सात सौ लखपतियों के बसने थे, यह प्रसिद्ध था। फिर यह नगर मारवाड़, राजपूताना और गुजरात के मुँह पर होने से व्यापार का बड़ा भारी केन्द्र हो गया था। नगर में बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ, बाग, उपवन और राजमार्ग तथा बाज़ार थे। राजा भी खूब सम्पन्न था। उसके खजाने में भी काफी स्वर्ण-कोष था। उसे अपनी बुद्धि और वीरता का घमण्ड भी था। उसकी गहरी उलझन को दुर्लभराय ने अपने वाक्चातुर्य से दूर कर दिया। दुर्लभराय आयु में कम होने पर भी दिल्ली के दरबार में रहने के कारण काफी राजनीति-पटु हो गया था। उसने कहा, “महाराज, हमें म्लेच्छ से युद्ध तो करना ही नहीं है, वह कोई हमारे राज्य पर तो चढ़ नहीं रहा। वह तो जा रहा है गुजरात। हमसे राह माँगता है, पर अधर्मी को हम राह नहीं देंगे। इसलिए मैंने जो योजना बनाई है, वह ऐसी है कि उससे हमारी धन-जन की कुछ भी हानि नहीं होगी और इस दैत्य को हम नाकों चने चबवा देंगे। आप जानते हैं प्रकृति हमारी सहायक है, नान्दोल से आगे गहन वन हैं। उसके आगे विकट तंग घाटी है। बस, वहीं हम अपनी करामात दिखाएँगे। अभी हमें नगर खाली कर देना चाहिए। धन-रत्न, प्रजा-परिवार सब को सुरक्षित दुर्गम पर्वतों पर भेज देना चाहिए। दैत्य को चारा, जल, अन्न न मिले, ऐसी व्यवस्था कर देनी चाहिए।" दुर्लभराय की सम्मति से अनहिल्लराय सहमत हो गया। अब सब बातों पर पूर्वापर विचार करके उसने योजना बना ली।
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