पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१६८

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64 ca "तो विमल, तू मुझे गद्दी से उतारता है?" “महाराज को गद्दी पर विराजने में बहुत कष्ट उठाना पड़ रहा है।" "और जो मैं गद्दी नहीं छोडूं?" "तो और अच्छा है। उठाइए तलवार।" "तलवार?" “हाँ महाराज, यदि आप किसी म्लेच्छ की तलवार का भोग होना ही चाहते हैं तो फिर जैसी महाराज की इच्छा!" राजा की आँखों से झरझर आँसू झरने लगे। उसने कहा, “अरे विमल, यह क्या मेरा तलवार उठाने का काल है?" "नहीं है महाराज, इसी से मैंने निवेदन किया कि अब महाराज शुक्ल तीर्थ पधारें।" “वहाँ क्या है?" "देवस्थान हैं, रायस्थली है, सुपर्णा नदी है, वन-विहंगम है, शीतल-मन्द पवन है।" “और गज़नी का यह दैत्य?" "वहाँ न जाने पाएगा महाराज।" 'और यदि जाए तो?" “विमल के जीते-जी नहीं महाराज।" “यह...यह क्या यथेष्ट है?" “एक भी गुर्जर जब तक जीवित है, तब तक नहीं।" "हाँ, अब ठीक है। किन्तु ये हत्यारे, जो अपने राजा को विष देकर मार डालना चाहते हैं? “सब दण्ड पाएँगे महाराज, वहाँ उनका कुछ भय नहीं है।" "तो तू जान विमल।” "महाराज निश्चिन्त रहें।" “अच्छा, तो तैयारी कर।" “महाराज का गजराज द्वार पर उपस्थित है। रनवास रवाना हो चुका है। सेवक, खवास और सब विश्वासी जन रवाना हो चुके हैं महाराजा" "तो फिर मैं चला।" "राजा काँपता हुआ गद्दी से उठ खड़ा हुआ। जीवन के पचास वर्ष जहाँ बैठकर उसने कच्छ, लाट, झालौर, मारवाड़, स्थानक और सिन्ध के छत्रपति राजाओं का छत्र भंग किया था, उज्जयनी के मालवराज जिससे सदा स्पर्धा करते तथा भयभीत रहते थे। वही सोलंकी गुजरेश्वर चामुण्डराय आज थर-थर काँपता हुआ, बुढ़ापे में धुंधली आँखों से अविरल अश्रुधारा बहाता हुआ गद्दी से नीचे लड़खड़ाते पैर रख रहा था। "