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पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१७

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सुलतान कुछ देर तक चुपचाप सोचता रहा। गंग सर्वज्ञ ने कहा, "क्या सोच रहे हो सुलतान?"

"आप सर्वज्ञ हैं, आप ही कहिए।"

सर्वज्ञ हँस दिए। फिर उन्होंने कहा, "सुलतान ! मैं तुम्हें आशीर्वाद दे चुका हूँ, वह क्या यथेष्ट नहीं है?"

"परन्तु मेरे मन की बात?"

"व्यर्थ है।"

"इस तलवार के रहते?"

"सुलतान, यह तुम भी जानते हो कि इस हाड़-माँस के शरीर में जो कुछ है, वह नगण्य है। जो सर्वत्र व्याप्त है वही सब-कुछ है। परन्तु अब तुम जाओ, रात अँधेरी है और राह बीहड़। ऋतु भी अनुकूल नहीं है। तुम्हारा अश्व और साथी सिंहद्वार पर प्रतीक्षा कर रहे हैं। महालय के चर, तुम्हें सकुशल महालय की सीमा के उस पार पहुँचा देंगे।"

सुलतान ने क्षणभर गंग सर्वज्ञ को और फिर आकाश में सिर ऊँचा किए महालय के शिखर की ओर देखा। एक बार उस रूपसी बाला का, देव-निर्माल्य का, स्मरण किया और फिर सिर नीचा करके बिना ही गङ्ग को प्रणाम किए सीढ़ियाँ उतरने लगा।

गंग ने दोनों हाथ उठाकर उसे मौन आशीर्वाद दिया।