उदयास्त
सोमनाथ महालय के कोट की दक्षिण दिशा में चतुर्थ तोरण था। उसे पार करने पर देवदासियों का आवास था, जो दृढ़ परकोटे से घिरा था। इस समय इस आवास में सात सौ सुन्दरियाँ रहती थीं। कुछ गुजरातिनें थीं, जिनका श्याम वर्ण, मध्यम कद और मृदु भाषण अनायास ही दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करता था। कुछ उत्तरापथ की निवासिनी थीं, जिनकी उन्नत नाक और प्रशस्त मस्तक, गौर वर्ण तथा उच्च स्वर उनके व्यक्तित्व को प्रकट करता था। कुछ सुदूर हिमाचल शृङ्ग के परे की निवासिनी थीं, जिनकी चपटी नाक, ठिगना कद, और पीत वर्ण अलग छटा दिखाता था। कुछ दक्षिणापथ की श्यामल वामाएँ थीं, जो अपने उज्ज्वल वेश और चंचल नेत्रों से क्षण-भर ही में यात्रियों का हृदय जीत लेती थीं। कोई मृदुल खरज के स्वरों से, कोई कुशल प्रगल्भ आलाप से, कोई भावपूर्ण नृत्य-विलास से, देव और देवभक्त जनों को रिझाती थीं। सब देवार्पित थीं और नृत्य-गीत-विलास से देव सोमनाथ और उनके भक्तगणों की आराधना करती थीं। ये सुन्दरियाँ नख-शिख से विलास, शृङ्गार और भाव की प्रतिमूर्तियाँ-सी बनी रहती थीं। इनके मोह और भाव में फँसे राजा मन्त्र-मुग्ध बने सोमनाथ महालय में महीनों-वर्षों पड़े उनकी नूपूर-ध्वनि का ध्यान करते और उनके प्रेमामृत को चख कर महावर-रंजित पाद-पंकज का, मृदुल-सुखद-कोमल आघात स्पर्श कर जीवन धन्य करते थे।
इस आवास में सबसे पृथक् एक ओर छोटा-सा किन्तु सुन्दर घर, सब से निराला था। इस घर के द्वार पर एक बिल्व वृक्ष था। यही गंगा दासी का घर था। गंगा का यौवन अब सम्पूर्ण हो चुका था। उत्फुल्ल नेत्रों के चारों ओर स्याही की रेखा दौड़ गई थी। गुलाबी गालों की कोर पर एक-आध लकीर दीख पड़ती थी। भौरे से काले और बूंघरवाले केश-गुच्छ के बीच एक-आध श्वेत बाल चाँदी के तार के समान चमकता दीख पड़ता था। उसके सुन्दर दाँत अभी भी वैसे ही आभा बिखेरते थे। पर होंठों का रस एक रत्ती कम पड़ चुका था। अभिप्राय यह, कि गंगा अब चालीस के निकट पहुँच रही थी, फिर भी उसकी वाणी में, चाल में और खड़ी होने के ढंग में एक उन्मादक आकर्षण था, वह महान् कलाकार थी। उस युग में, दक्षिणांचल में उसके समान गायिका और नर्तकी दूसरी न थी। वह बीस वर्ष तक सोमनाथ महालय में नर्तकी का अधिष्ठात्री-पद भोग चुकी थी, और अब भी वह उसी पद पर आसीन थी।
गंग सर्वज्ञ जब महालय में पीठारूढ़ हुए, उसके दो ही वर्ष बाद गंगा भी न जाने कहाँ से एक दिन अचानक अपना छकड़ा-भरा रूप और बिखरता हुआ यौवन का मद लाकर महालय के प्रांगण में नृत्य करने लगी। उस समय वह पन्द्रह वर्ष की एक छोकरी थी। छरहरा शरीर, उज्ज्वल श्याम वर्ण, गहरी-काली आँखें, मध्यम कद और सर्प की सी चपलता। उसके प्रथम नृत्य ने ही उसे महालय की सभी नर्तकियों की अधिष्ठात्री बना दिया। गंग सर्वज्ञ तब भी एक तरुण ब्रह्मचारी थे। तप्त ताम्र-सा रंग, महामेधा, सिंह के समान वक्ष और कटि। उनके तप और तेज की बहुत बातें गुजरात में फैली थीं। वे दशाङ्ग विद्याओं के