गुजरात की राजधानी में अमीर भस्मांकदेव का संकेत समझ गया। उसने तुरन्त छावनी तोड़ दी और गुजरात की शस्य-श्यामला भूमि को उजाड़ता, राह-बाट के गाँवों को लूटता, जलाता और निरीह स्त्री-पुरुषों को तलवार के घाट उतारता, झपाटे बन्द अनहिल्ल पट्टन की पौर पर जा खड़ा हुआ। सिद्धपुर को उसने बगल में छोड़ दिया, आबू-चन्द्रावती से भी कतरा गया। दुर्लभ देव ने उसके मार्ग में बाधा नहीं दी। और विमल देव शाह भी जैसे कान में तेल डालकर सो गए। दुर्लभदेव की तैयारियों से भयभीत पड़ा हुआ अमीर आगे बढ़ने में हिचक रहा था। वह उसकी तैयारियों से आश्वासन पाने पर भी भयभीत हो रहा था। अब जैसे भस्मांकदेव ने उसके दिल का काँटा ही निकाल दिया, दुर्लभदेव की अयाचित मैत्री और पाटन का निर्विरोध समर्पण उसके लिए दैवी वरदान बन गए। अब उसने एक क्षण भी खोना घातक समझा और वह ताबड़तोड़ कूच-दर-कूच करता चला गया। अमीर की अवाई सुनकर पाटन के तथाकथित थानेदार चण्ड शर्मा नगर के अवशिष्ट जनों का एक प्रतिनिधि-मण्डल बनाकर अमीर की सेवा में पहुँचे। और अत्यंत अधीनताई जताकर कहा, “पाटन में आपका अवरोध करने वाला एक भी पुरुष नहीं है, इसलिए आप नामदार से हमारी यह अज दाशत है कि हमें अपन अनुगत प्रजा समझकर हमारी जान-माल की रक्षा करें। नगर में लूटमार न हो। हम सब नगर-निवासी आपकी शरण हैं।" सुलतान यह सुनकर प्रसन्न हो गया। वास्तव में गुजरात की जगतप्रसिद्ध यह समृद्ध राजधानी इस प्रकार निर्विरोध बिना प्रयास उसके हाथ लग जाएगी, इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। उसे सब-कुछ स्वप्नवत् भान हो रहा था। वह नहीं चाहता था कि सोमनाथ पट्टन पहुँचने से पहले उसके एक भी योद्धा, एक भी घोड़े की क्षति पहुँचे। यह उसका दुर्धर्ष प्रभाव, रण-चातुर्य तथा असीम धैर्य ही था कि वह नान्दोल वन के विनाश को सहकर भी अपनी सेना को सुगठित कर सका। फिर भी वह अपनी उस क्षति को जानता था, और अब उसे अपनी विजय में घोर सन्देह था। इस समय यदि अकेला दुर्लभदेव ही सिद्धपुर में उसकी राह रोक लेता, या विमलदेव शाह और भीमदेव की संयुक्त सेना अर्बुदगिरि में ही उससे मोर्चा लेती तो अमीर का निस्तार नहीं था। उसे गुजरात की ओर एक कदम उठाना मौत के मुँह में प्रविष्ट होना जान पड़ रहा था। इन सब कारणों से इन सब अनागत भयों से मुक्त होने से अमीर के आनन्द का पार न रहा। उसने नागरिकों की अर्ज़दाश्त स्वीकार की और खड़ी रकाब पाटन में प्रवेश कर दरबार गढ़ दखल कर अपने नाम का डंका बजवा दिया। फिर शुक्राने की नमाज पढ़ी। अपने नाम का अमल नगर में फेरकर नगर-निवासियों को अभयदान दिया। और उन्हें तथा सेना को तीन दिन जश्न मनाने का हुक्म दिया। नगर-निवासियों को मन की गहरी उदासी मन में छिपाकर, घरों में रोशनी करनी पड़ी। अमीर के दरबार में हाजरी बजाकर भेट-नज़र देनी पड़ी। अमीर ने यद्यपि नगर को न लूटने की आज्ञा दे दी थी, पर विजयोन्मत्त पठान और तुर्क सिपाही जहाँ जो वस्तु पाते,
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