पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१८५

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गंग सर्वज्ञ की इस घोषणा के उत्तर में उपस्थित जनता ने गगनभेदी जयनाद किया-“महाराज भीमदेव की जय।”, “महा धर्म-सेनापति की जय,” “भगवान्, सोमनाथ की जय!" इसी जय-जयकार के बीच खड़े होकर भीमदेव ने एक संक्षिप्त भाषण दिया- "सद्गृहस्थो, महाप्रभु सर्वज्ञ ने जो भार मुझे दिया है वह मैं प्राणान्त उद्योग करके वहन करना अपना धर्म समदूंगा। हम सब पर घोर धर्म-संकट आया है। यह गज़नी का दैत्य जो अपने घोड़ों की टापों से हमारे धर्म और देश को हर बार रौंदता हुआ हमारी स्वर्ण-मणि और प्रतिष्ठा के साथ हमारी देव-सम्पदा का हरण करता है सो यह उसका दोष नहीं, हमारा ही दोष है। हमारी ही कायरता, फूट और स्वार्थ ने उस धर्मद्वेषी को सफल अभियान वाला बनाया है। आज मैं चालुक्य भीमदेव अपने प्राणों की शपथ खाकर कहता हूँ कि जब तक मेरे रक्त की एक भी बूंद मेरे शरीर में रहेगी मैं इस दैत्य का दलन करूँगा। और यह मैं आप ही के सहयोग और सहायता के बल पर कह रहा हूँ।" एक बार फिर गगनभेदी जय-जयकार हुआ। सर्वज्ञ ने हाथ के संकेत से सबको निवारण किया। भीमदेव ने कुछ क्षण शान्त रहकर कहा, “अब आज से यह प्रभास तीर्थ- प्रभास दुर्गाधिष्ठान हुआ। सोमनाथ महालय और प्रभासपट्टन नगर दोनों ही की व्यवस्था सैनिक नियमों के आधार पर दुर्ग की भाँति की जाएगी। मैं आशा करता हूँ कि सोमनाथ महालय की रक्षा और सैनिक व्यवस्था के लिए जैसा आदेश आप लोगों को दिया जाएगा, उसे आप यथावत् मान्य करके हमारी शक्ति की वृद्धि करेंगे। "हमारी सबसे पहली आज्ञा है कि भगवान् सोमनाथ की रक्षा के लिए रक्तदान देने की सामर्थ्य जिस तरुण में हो, वही शस्त्र धारण करके प्रभास दुर्गाधिष्ठान में रहे। जो कोई समय-समय पर दिए गए आदेशों का उल्लंघन करेगा, वह प्राण-दण्ड का भोग भोगेगा। अब आप सब कोई शान्त भाव से अपने-अपने आवास को चले जाएँ।" इस बार जनता ने जयनाद नहीं किया। सब लोग गम्भीर मुद्रा से उठकर चुपचाप चले गए। मन्दिर का जनाकीर्ण रत्न-मण्डप देखते-देखते जन-शून्य हो गया।