प्रभास दुर्गाधिष्ठान भीमदेव ने नगर का भार बालुकाराय को सौंपा। मन्दिर की रक्षा का भार जूनागढ़ के राव को दिया गया। मन्दिर का धन-रत्न, कोष और भीतरी व्यवस्था मकवाणा के सुपुर्द हुई। दामोदर महता को गुप्तचर विभाग और सूचना विभाग सौंपा गया। रसद और व्यवस्था पतरी के ठाकुर को और प्रभास पट्टन के जल-तट की रक्षा कमा लाखानी के सुपुर्द की गई। सम्पूर्ण संयुक्त धर्म-सैन्य का भार बाणबली ने स्वयं लिया। बालुकाराय ने तुरन्त नगर में सैनिक व्यवस्था घोषित कर दी। और तुरन्त ही निष्कासन कार्य आरम्भ हो गया। नगर के व्यापारी, सेठ-साहूकार अपना अपना मालमता धन-रत्न लेकर पुत्र-परिजन सहित ठठ-के-ठठ खम्भात जाने के जहाज पर आने लगे। तीन प्रहर बीतते-बीतते यह कार्य समाप्त हो गया। उसी दिन रात को पट्टन के सम्पूर्ण ब्राह्मण- परिवार भी रवाना कर दिए गए। उन्हीं के साथ सब बालक और स्त्रियाँ भी। बहुत नगर- जन स्थल-मार्ग से इसी दिन चले आए। आठ प्रहर में नगर का रूप ही बदल गया। सभी सूने घरों में सैनिकों ने अपने अड्डे जमा लिए। स्थान-स्थान पर मोर्चेबन्दी होने लगी। प्राचीर, तट, पुल, खाई, परकोट सभी का संस्कार हुआ। सर्वत्र ही प्रहरियों की नियुक्ति हुई। नगर में एक भी स्त्री, एक भी बालक दृष्टिगोचर नहीं होता था। हाट-बाट में शस्त्रों के बनाने के कारखाने देखते-देखते खड़े हो गए। स्थान-स्थान पर योद्धा अपनी-अपनी तलवारों की धार सान पर चढ़ाने लगे। वातावरण में वीर रस का प्रादुर्भाव हो गया। लोग बेसब्री से देवभंजक गज़नी के दैत्य की प्रतीक्षा करने लगे। यह सारी व्यवस्था करके महा सेनापति ने सम्पूर्ण संयुक्त सैन्य की परेड कराई। सारी सेना को एकत्र किया गया। उसमें बारह हज़ार काठियावाड़ के अडिग योद्धा अपने गठीले टट्ट ओं पर सवार थे। सात हज़ार गुजरात की विकट पहाड़ियों की गुफाओं में नंगे रहने वाले भील हाथ में भाला और तीर-कमान लिए आए थे। तीन हज़ार कोली ठाकुरों की ग्रामीण सैन्य गंडासों और फरसों से लैस थी। दस हज़ार राजपूत क्षत्री मारवाड़, सिन्ध और आसपास के इलाके से आए थे, एवं अठारह हज़ार गुर्जर सेना बाणबली की कमान में थी। इस प्रकार प्रभास के प्रांगण में पचास सहस्र दल का जमाव था। जरीन ज़ीन वाले सफेद घोड़े पर सेनापति के ठाठ में बाणबली भीमदेव छत्र-चमर धारण कर उपस्थित हुए। उनका चपल अश्व हवा में उछल रहा था। उसके मुकुट- कान- कण्ठ और ज़ीन पर जड़े मणि सूर्य की धूप चमक रहे थे। महा सेनापति भीमदेव ने झिलमिल कवच धारण किया था। उनके तेजस्वी श्यामल चेहरे पर तेज झलक रहा था। सम्मुख खड़े हिन्दू बल को देखकर उन्होंने तलवार म्यान से निकाल कर जय-घोष किया-“जय ज्योतिर्लिंग! जय सोमनाथ! जय सोमनाथ! एक साथ ही सहस्रों कण्ठों से जय ज्योतिर्लिङ्ग का गगनभेदी स्वर निकला, जैसे समुद्र में तूफान आ गया हो।
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