पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

c “आप आज्ञा दीजिए। सेनापति ने मुझे ले जाने को चर भेजे हैं, उन्हें निवारण कीजिए।" “किन्तु.."वे फिर विचार में पड़ गए। चौला चुपचाप आँसू बहाती रही। भीमदेव ने कहा, “देखू, यदि सर्वज्ञ...” वे उठकर कक्ष से बाहर चले, द्वार पर गंगा खड़ी थी। गंगा को देखकर उन्होंने हंसकर कहा- "देखा, चौला रो रही है।" “क्यों?" “वह जाना नहीं चाहती।" “उसे जाना होगा, महाराज।" “किन्तु...” “सर्वज्ञ का आदेश है।" “उनसे कहो, उसे रहने दें।" "कहना असम्भव है।" "क्यों?" "वे समाधिस्थ हैं।" "समाधि भंग होने पर?" “समाधि अभी भंग नहीं होगी। उनका आदेश टाला भी नहीं जा सकता है। चौला को जाना ही होगा।" भीमदेव असमंजस में पड़ गए। फिर उन्होंने हँसकर कहा, “मैं सर्वाधिप सेनापति हूँ, यदि मैं आदेश दूं?" “सर्वज्ञ के आदेश को रद्द करके?" "नहीं, नहीं, परन्तु...” वे फिर विचार में पड़ गए। गंगा भीतर गई और सूखी वाणी में कहा, “उठ चौला, विलम्ब न कर, यान जाने में अब विलम्ब नहीं है, सेनापति प्रतीक्षा कर रहे हैं।" चौला ने कातर दृष्टि से भीमदेव की ओर देखा। भीमदेव असंयत हुए, उन्होंने कहा, “गंगा, चौला को रहने दे, कुछ हर्ज नहीं। मैं समाधि भंग होने पर सर्वज्ञ से निवेदन कर दूंगा।" “यह असम्भव है महाराज, सर्वज्ञ का आदेश टाला नहीं जा सकता।" "तो सर्वज्ञ की समाधि भंग होने तक यान को रोका जाए, मैं बालुकाराय से कहता इसी समय बालुकाराय ने प्रविष्ट होकर चौला को लक्ष्य करके कहा, “बहुत विलम्ब हो रहा है।" भीमदेव ने कहा, “उसे रहने दो बालुक, मेरा आदेश है। बालुकाराय ने सिर झुकाया। इसी समय दामोदर महता ने बालुकाराय के पीछे से निकलकर कहा, “नहीं महाराज, उन्हें जाना ही होगा।" “किन्तु सर्वज्ञ की समाधि भंग होने तक...” “मैंने सर्वज्ञ से निवेदन किया था महाराज, परन्तु उन्होंने फिर आदेश दिया कि ,