पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१९९

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पतिव्रता रमा कृष्णस्वामी के अनुरोध से शोभना को चौला की सखी बनकर उसी के साथ रहने में कोई कठिनाई नहीं हुई। कृष्णस्वामी को भी इससे एक प्रकार की निश्चिन्तता हो गई। बालुकाराय ने प्रसन्नता से कृष्णस्वामी का अनुरोध मान लिया और शोभना को चौला के पास पहुँचा दिया। शोभना की आयु यद्यपि चौला से कुछ अधिक ही थी परन्तु दोनों को एक प्रकार से समवयस्का ही कहा जा सकता था। शोभना जैसी आनन्दी, चतुर और तत्पर सहेली पाकर चौला भी बहुत प्रसन्न हुई। राह में ही दोनों हिलमिल गईं। खम्भात पहुँचते- पहुँचते दोनों चिर सखी हो गईं। महाराज महा सेनापति भीमदेव का संकेत पाकर खम्भात में चौला को सब सम्भव सुख-साधन जुटा दिए गए और वहाँ महारानी की भाँति मर्यादा से रहने लगी। शोभना उनकी परछाईं की भाँति रात-दिन साथ रहने तथा उसका मनोरंजन एवं सेवा करने लगी। अपनी सेवा-प्रेम-तत्परता और आनन्दी स्वभाव से शोभना ने शीघ्र ही चौला का मन मोह लिया। परन्तु रमाबाई किसी तरह खम्भात जाने को राजी न हुई। भाषा और भाव उसके चाहे जैसे रहे हों, अभिप्राय उसका यही था कि पति ही उसका लोक-परलोक में शरण है, पति ही परमेश्वर है, पति ही प्राण है, पति ही धर्म है, उसके चरणों का आश्रय छोड़कर वह जीते-जी कहीं नहीं जाएगी। जो पति की गति सो उसकी गति। वह जीवन-मरण, सुख- दुःख, लाभ-हानि, सम्पत्ति-विपत्ति में पति की अखण्ड संगिनी, सहधर्मिणी और भार्या है। परन्तु यह हुआ अभिप्राय। भाव-भाषा भी देखिए इसमें किसी का वश भी क्या है। मनुष्य अपने स्वभाव ही के अनुसार मनोभाव प्रकट करता है। सो जब रमाबाई से खम्भात जाने को कहा गया तो उसने अच्छा-खासा महाभारत खड़ा कर दिया। वह गुस्से से मुँह फुला कर अपनी गोल-गोल आँखें घुमाती हुई बेलन लेकर कृष्णस्वामी के सामने तन कर खड़ी हो गई और सर्पिणी की भाँति फुफकार मार कर बोली, “देखती हूँ, तुम मुझ जीती- जागती को कैसे घर से निकालते हो, चार फेरे डाल अग्नि की साक्षी करके लाए हो, भाग कर बाप के घर से नहीं निकली हूँ। अब इस की देहरी के बाहर मेरी लाश ही निकलेगी, समझे!” किन्तु कृष्णस्वामी ने खूब नर्म होकर समझाते हुए कहा, “यह बात नहीं है शोभना की माँ, वह गज़नी का राक्षस आ रहा है। उसी के भय से सब लोग घरबार छोड़कर भाग रहे हैं। तुम्हें घर से निकालता कौन है! घर-बार तो सब तुम्हारा ही है। तुम्हीं न घर की मालकिन हो।" इस पर ज़िद करके रमा ने कहा, “तो जिसे डर हो, वह भागे। आए वह गज़नी का राक्षस, इसी बेलन से उसका सिर न फोडूं तो मेरा नाम रमा नहीं।” वह गेंद की तरह लुढ़कती हुई सारे घर में घूम गई। फिर फफक-फफक कर रोने लगी। रोते-रोते बड़बड़ाने लगी, “तुमने जन्म भर जलाया है, और अब डर के मारे औरत को घर से बाहर भेज रहे हो, बड़े बांके बहादुर हो। अरे नामर्द, औरत की रक्षा नहीं कर सकते थे, तो उसका हाथ चार पंचों में क्यों पकड़ा था? फिर डर है तो तुम भी चलो। तुम यहाँ कहाँ के तीर- तमंचे चलाओगे। देखी है तुम्हारी जवांमर्दी बस अधिक न कहलाओ।"