पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२१०

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शत्रु-मित्र बैलगाड़ी पर, देलवाड़े का राजमार्ग आबाल-वृद्ध नर-नारियों से पटा पड़ा था। कोई ऊँट, घोड़ा, कोई पैदल, कोई असमर्थ-रोगी-अपाहिज आने में असमर्थ साथी को पीठ पर लादे हुए प्रभास की ओर आ रहे थे। उनमें बहुत घायल थे। मुमूर्षु थे, अनेक विलाप करती सद्यःविधवाएँ थीं, जिनका एक ही रात में चिर सुहाग लुट चुका था। अनेक सिसकते भूखे- प्यासे अनाथ बालक थे, जो रात को माता की सुखद गोद में सोए थे। एक ही रात में उनपर वज्रपात हुआ था। उनके घर-बार लूट-पाट और जलाकर खाक पर दिए गए थे। स्त्री-पुरुष सभी को तलवार के घाट उतार दिया गया था। देलवाड़े की सम्पन्न और खुशहाल बस्ती एक ही रात में उजाड़ कर ऐसी कर दी गई थी कि उसे भूतों का वास कह सकते थे। बचे- खुचे लोग जैसे तैसे प्रभास की शरण में आ रहे थे। गज़नी का दैत्य देलवाड़े तक आ पहुँचा है और उसने देलवाड़े को भंग कर दिया है, यह बात बिजली की भाँति प्रभास में फैल गई। ठठ-के-ठठ लोग देलवाड़े के राजमार्ग पर आ जुटे। सिसकती हुई अबलाओं, लुटे हुए वृद्धों और आहत युवकों ने देलवाड़े की रक्तरंजित कहानी-चौधारे आँसू बहा-बहाकर कह सुनाई। सैनिक और नगर के अगणित जनों ने उन्हें धैर्य दिया, नगर के भीतर लिया। उनके भोजन और विश्राम की व्यवस्था की। घायलों तथा रोगियों की सुश्रूषा होने लगी। नगरपाल ने तुरन्त ही इन शरणार्थियों को भी खम्भात भेजने की व्यवस्था कर दी। उन्होंने यह भी समझ लिया कि अब युद्ध में विलम्ब नहीं है। तत्काल नगरकोट और दुर्ग के सब द्वार बन्द कर दिए गए। खाई-समुद्र जल से भर दी गई। बुर्जियों पर धनुर्धारी तैनात कर दिए गए। नगर से बाहर जाना निषेध कर दिया गया। नगरपाल जब शरणार्थियों, नागरिकों और सैनिकों की व्यवस्था तथा रक्षा एवं प्रथम मुठभेड़ की तैयारियों में व्यस्त थे और महासेनापति भीमदेव व्यग्र भाव युद्ध मोर्चों की देख-भाल कर रहे थे, तभी दामोदर महता ने एक दुस्साहसिक कार्य किया। वे शस्त्र- सज्जित घोड़े पर सवार होकर चुपचाप परकोटे से बाहर निकल गए। बाहरी परकोटे के बाहर, खाई के उस पार दक्षिण-पश्चिम कोण पर, परकोटे से सटा जो महाकाल भैरव का मन्दिर था, वे वहाँ तक चले गए। बड़ी देर तक वे मन्दिर से दूर-दूर उसके चारों ओर घूम- घूम कर कुछ निरीक्षण करते रहे। फिर वे हिरण्या नदी के किनारे-किनारे अघोरवन के अभिमुख चलते चले गए। दो प्रहर दिन चढ़ आया था और सूरज की धूप खूब साफ चमक रही थी। उसमें बलखाती हुई हिरण्या का जल पिघलते हुए स्वर्ण की भांति चमक रहा था। किनारे की बालू चाँदी की भाँति चमक रही थी। चारों तरफ सन्नाटा था। दूर तक मनुष्य का नामो-निशान न था। दूर पर प्रभास का नगरकोट और उसके ऊपर महालय का स्वर्ण-कलश चमक रहा था। दामो महता चौकन्ने हो चारों और राह-बाट ताकते नदी के उस पार अघोरवन की काली-काली पहाड़ियों की चोटियों को, और कभी दूर तक टेढ़ी-मेढ़ी बहती हुई क्षीण हिरण्या नदी की धार को देखते चल रहे थे। एकाएक उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि हिरण्या नदी के उस पार अघोरवन के तट