पर कोई वस्तु हिलती और इधर-उधर घूमती फिर रही है। उन्हें बड़ा कौतूहल और भय भी हुआ। वह तो अगम्य स्थल है, पिशाचों का वास है, मनुष्य का वहाँ जाना-रहना अशक्य है, तब यह क्या कोई पिशाच या प्रेत है? सम्मुख ही महाश्मशान था। परन्तु इस समय वहाँ भी सन्नाटा था। उन्होंने एक बार उधर देखकर फिर अपनी दृष्टि उसी हिलती हुई वस्तु पर स्थिर की। उन्होंने अब स्पष्ट देखा। वह मनुष्य मूर्ति है और अश्व पर सवार है। वह बड़े ध्यान से उस मनुष्य मूर्ति की गतिविधि देखने लगे। उन्होंने देखा-उस मूर्ति ने अपना अश्व हिरण्या में डाल दिया है, और वह इस पार आ रहा है। ज्यों-ज्यों वह निकट आता जाता था, उसकी आकृति स्पष्ट होती जाती थी। उसके सिर पर हरे रंग की पगड़ी थी और ऐसा ही एक चोगा उसके शरीर पर था। उसकी लम्बी नंगी तलवार धूप में चमक रही थी और वह घोड़े पर आसीन बड़ी दक्षता से नदी पार हो रहा था। कुछ निकट आने पर उन्होंने देखा-सवार कोई तुर्क म्लेच्छ है, उसकी लाल दाढ़ी हवा में फरफरा रही है। देखते ही देखते वह इस पार भूमि पर आ गया। आते ही उसका बलिष्ठ अश्व हवा में उछला और छलांगें मारने लगा। अब दामोदर महता को अपनी एकाकी तथा असहाय अवस्था का ध्यान आया। दामो जैसे कूटनीतज्ञ थे, वैसे ही युद्ध-विशारद भी थे। उन्होंने तत्काल खतरे को समझ लिया। नदी-तट से हटकर सामने कुछ वृक्षों का एक झुरमुट था, वे तेज़ी से उधर ही चल दिए। परन्तु तुर्क सवार ने उन्हें देख लिया। तीर की भाँति अपना अश्व उड़ाता और हवा में अपनी तलवार घुमाता हुआ वह उन पर दौड़ा। महता ने अपना अश्व दो भारी वृक्षों के बीचों-बीच व्यवस्थित किया। और स्थिर होकर शत्रु के आक्रमण के वेग को रोकने के लिए सन्नद्ध हो गए। अपने अश्व को व्यर्थ थकाना उन्होंने ठीक नहीं समझा। शत्रु जब एक तीर के अन्तर पर रह गया, तब तुर्क ने घोड़े को दाहिनी ओर मोड़ा और तेज़ी से महता की बगली देकर वह पृष्ठ भाग में जा पहुँचा। फिर एकबारगी ही उन पर टूट पड़ा। महता सावधान थे। उन्होंने द्रुतगति से उसी ओर अश्व को घुमाकर तिरछा खड़ा किया। तलवार उन्होंने हाथ में ले ली। शत्रु को वार करने का अवसर नहीं मिला। इस पर खीझकर वह एक तीर के फासले पर चला गया और फुर्ती से तलवार खींचकर वहाँ से बाज़ की भाँति झपटा। महता के निकट आकर ज्यों ही वह हाथ ऊँचा करके तलवार के एक वार में शत्रु के दो टुकड़े करना चाह रहा था कि महता ने फुर्ती से घोड़े को एड़ देकर उसपर धकेल दिया। फिर अत्यन्त कौशल से उसे उसकी कमर में हाथ डालकर उसे घोड़े से नीचे गिरा लिया, और बड़े ही हस्त-लाघव से उसकी गर्दन अपने धनुष की डोरी में फँसा ली। धनुष की डोरी में गर्दन फँसने से तुर्क शत्रु छटपटाने लगा। तलवार उसके हाथ से छूट गई। दोनों योद्धा पूरा बल लगाकर पृथ्वी पर द्वन्द्व-युद्ध करने लगे। परन्तु गर्दन डोरी में फँसी रहने से तुर्क के हाथ-पैर ढीले पड़ गए। दामो महता ने दो-तीन करारे झटके दिए और अनायास ही उसकी छाती पर चढ़ बैठे। और तलवार की धार उसकी गर्दन पर रखकर कहा, “अब तू मर।" किन्तु पराभूत तुर्क ने मृत्यु की विभीषिका से तनिक भी भयभीत न होकर कहा, "शाबाश बहादुर, तुम सिपाही तो नहीं हो, मगर बड़े बहादुर हो, मरने से पहले मैं तुमसे
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