चारों ओर टटोलकर वह उस छिद्र में घुस गया। घोर अन्धकार था। परन्तु उसे तुरन्त ही मालूम हो गया कि वह एक सुरंग का द्वार है। तथा सुरंग में ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। 5-6 सीढ़ियाँ चढ़ने पर ही वह जल से ऊपर हो गया। जल से ऊपर आकर वह एक सीढ़ी पर बैठकर सुस्ताने लगा। उसने देखा, सामने आगे सुरंग में कहीं से प्रकाश आ रहा है। वह आगे बढ़ा। दस-बारह सीढ़ियाँ और चढ़ने पर उसने देखा, ऊपर एक बड़ा छिद्र है, छिद्र में होकर एक भारी वट वृक्ष उसे दीख रहा था। वह समझ गया, यह वही विशाल वट वृक्ष है जो काल भैरव के मन्दिर के पाश्र्व में है, यहीं से ऊपर को सीढ़ियां उस छिद्र तक जा रही थीं। पर सम्मुख सीधी सुरंग थी। अब उसने अपने गीले वस्त्रों को निचोड़ कर नंगी तलवार हाथ में ले ली और सुरंग में आगे बढ़ गया। सुरंग में घोर अंधकार था। उसके अंग में कंपकंपी होने लगी। परन्तु उसने अन्त तक जाने का निश्चय कर लिया, और अंधकार में तैरता हुआ-सा आगे बढ़ने लगा। उसने दोनों हाथ आगे पसार दिए। और अनुमान किया कि सुरंग जंगल और मैदान पार कर रही है। बीच में उसे एक-दो छिद्र मिले जहाँ किचित् प्रकाश मोटे-मोटे छिद्रों से आ रहा था। वह आगे बढ़ा। यहाँ सुरंग दो तीन दिशाओं में फट गई थी। सोच-विचार कर वह एक दिशा में आगे बढ़ा। कोई वस्तु उसके सिर को छूती हुई उड़ गई, वह सिहर उठा, एक तरफ उसने मन्द-मन्द किसी के धसकने का शब्द अनुभव किया। भय से उसके समूचे अंग में पसीना छा गया। वह और भी आगे बढ़ा। अब उसे प्रत्यक्ष दीख पड़ा कि सुरंग में सर्प और चिमगादड़ बहुत हैं। परन्तु अब साहस ही उसका आसरा था। वह बड़ी देर तक चलता गया। धीरे-धीरे सुरंग ऊँची होती गई और उसका सिर ऊपर छत पर जा टकराया। टटोल कर देखा। सख्त पत्थर की चट्टान थी। अब वह भूमि पर बैठकर दोनों हाथ-पैरों से पशु की भाँति चल रहा था। उसने तलवार मुँह में दबा ली थी। धीरे-धीरे सुरंग तंग होती गई। और अब उसे बिल्कुल लेटकर खिसकना पड़ा। पर थोड़ा और चलने पर प्रकाश की झलक उसे दिखाई दी, प्रकाश बढ़ता गया। अन्त में एक चौकोर-सा समतल स्थान आया जहाँ से ऊपर को सीढ़ियाँ बनी थीं। सीढ़ी चढ़कर उसने सुरंग से बाहर मुँह निकाला। और उसने देखा कि वह पापमोचन के खण्डहरों में आ पहुँचा है। उचक कर वह बाहर आया। उसके हाथ-पैर, मुख और शरीर में धूल, मकड़ी के जाले और गन्दगी लग गई थी। उसने झटक कर वस्त्र साफ किए और चारों ओर दृष्टि फेरी। पापमोचन एक तीर्थ था। परन्तु चिरकाल से वह खण्डहर और वीरान पड़ा था। इधर लोगों का आना-जाना नहीं था। दूर तक मोटे-मोटे पत्थरों के टूटे-फूटे मन्दिर और मठ फैले पड़े थे। यह स्थान सोमनाथ पट्टन से बारह मील पर था। आनन्द ने इसके सम्बन्ध में सुना तो था, परन्तु उसने कभी यह स्थान देखा नहीं था। वह सावधानी से खण्डहर में घूमने और यह देखने लगा कि वहाँ किसी मनुष्य का कोई गुप्त वास तो नहीं है। खण्डहर में घूमते- घूमते वह जब उसके नैर्ऋत्य कोण की दिशा में पहुँचा तो यह देखकर उसके भय और आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि सामने ही गज़नी के अमीर का लश्कर पड़ा है। उसे अपनी एकाकी स्थिति का भान हुआ और अब उसे यह समझने में देर न लगी कि सिध्देश्वर इस गुप्त मार्ग से अमीर के पास मिलने आया है। उसकी मेधा-शक्ति ने यह भी समझ लिया कि यदि इस गुप्त मार्ग का उपयोग सोम-पट्टन में प्रविष्ट होने के लिए करे, तो फिर पट्टन का निस्तार
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२३८
दिखावट