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पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२४२

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दो घड़ी की प्राण-भिक्षा आकाश में बदली छाई हुई थी और उनके बीच तृतीया का अस्तंगत चन्द्र क्षीण प्रकाश डाल रहा था। एकाध तारे बादलों में झाँक रहे थे। इसी समय दद्दा सोलंकी की मूर्छा टूटी। कुछ देर वे सिर पकड़कर बैठे रहे, परन्तु शीघ्र ही उन्हें घटना का स्मरण हो आया। उन्होंने भयभीत होकर अपनी कमर टटोली, द्वारिका-द्वार की चाबी वहाँ न थी। भय से उनका मुँह पीला हो गया। उन्होंने आँख उठाकर खाई के उस पार बिखरे हुए अंधकार पर दृष्टि डाली। उन्होंने देखा, असंख्य काली-काली मूर्तियाँ चींटियों की भाँति किसी माया से प्रेरित-सी खाई के इस पार धंसी चली आ रही हैं और अवरुद्ध द्वारिका-द्वार से महालय के परकोट में प्रविष्ट हो रही हैं। कहीं भी एक शब्द नहीं हो रहा है। उनका सिर घूमने लगा और आँखों में अंधेरा छा गया। सिर के घाव से अभी भी खून बह रहा था और सिर दर्द से फटा जा रहा था। परन्तु वह दौड़कर दो-दो, चार-चार सीढ़ियाँ फलांगते हुए द्वारिका-द्वार की ओर दौड़े। राह में एक बुर्ज था, वहाँ सैनिकों की एक टुकड़ी पहरा बदल रही थी। बुर्ज द्वारिका-द्वार से तनिक आड़े पड़ता था। दद्दा के सिर से खून बहता देख टुकड़ी के नायक ने कहा, “बापू, यह क्या? रक्त कैसा?" पर दद्दा ने पागल की भाँति कहा, “प्रलय हो गया रे, प्रलय, उधर देख! दलपति ने देखा तो सन्नाटा छा गया। उसने तुरन्त नरसिंहा में फूंक दी। वह नरसिंहा-निनाद उस क्षीणमात्र रात्रि के सन्नाटे में गूंज उठा। सहसा सभी बुर्जी से नरसिंहे बज उठे और सैनिकों की टुकड़ियों में भाग-दौड़ मच गई। दद्दा नंगी तलवार हाथ में लिए पागल की भाँति ‘सावधान-सावधान' चिल्लाते द्वारिका-द्वार की ओर दौड़े। जहाँ के वे रक्षक थे और जहाँ चींटियों की पंक्ति की भाँति शत्रु धंसे चले आ रहे थे। इसी बीच में सैकड़ों मशालों का प्रकाश हो गया था और टिड्डी-दल की भाँति राजपूत योद्धा नंगी तलवार ले-लेकर द्वारिका की ओर बरसाती नदी की भाँति बढ़े चले आ रहे थे। धनुर्धर अपने-अपने नाकों पर जमकर तीर बरसाने लगे। बर्छ वाले बांके वीर बर्छा फेंकने लगे। हज़ारों वीर खाई में कूदकर बढ़े आते हाथियों पर करारा वार करने लगे। देखते ही-देखते टूटती हुई वह रात प्रलय-रात्रि हो गई। शीघ्र ही दोनों दल जुट गए। हर-हर महादेव और अल्लाहो-अकबर का निनाद एक दूसरे से टकरा गया। योद्धा छाती से छाती भिड़ाकर घातक प्रहार करने लगे। तीरों से आकाश पट गया। घायलों की चीत्कार, मरते हुओं का आर्तनाद, हाथियों की चिंघाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट, शस्त्रों की झंकार सब मिलकर रक्त में अवसाद उत्पन्न करने लगे। महाराज महासेनापति भीमदेव झटपट कवच धारण कर शस्त्रास्त्र ले घोड़े पर सवार विद्युत-गति से सारे मोर्चों की व्यवस्था का निरीक्षण करने और समुचित आदेश देने लगे। बालुकाराय और दामो महता उनकी रकाब के साथ थे। महासेनापति ने द्वारिका-द्वार पर आकर गम्भीर स्थिति देखी। दद्दा चौलुक्य मुट्ठी में तलवार थाम, खून से सराबोर, महाराज महासेनापति भीमदेव के सम्मुख आ चिल्लाकर बोले, “मैं कर्तव्यच्युत हुआ हूँ