महाराज, मेरा शिरच्छेद करने की आज्ञा दीजिए।" महाराज ने पूछा, “क्या बात है चौलुक्य?" “मैं द्वार की रक्षा न कर सका।" "अवश्य ही आपने शक्ति-भर कर्तव्य-पालन किया होगा।" "नहीं महाराज, मैंने कर्तव्य-पालन नहीं किया। मैंने चौकी त्याग दी।" “क्या?” महाराज ने क्रोध ने नथुने फुलाकर कहा। हठात् उन्हें याद आया कि चौलुक्य चौला के पिता हैं। उन्होंने नर्म होकर कहा, “हुआ क्या चौलुक्य?" चौलुक्य ने सब घटना जल्दी-जल्दी उन्हें सुना दी। महाराज की आँखों से आग निकलने लगी। उन्होंने पूछा, “तुम रुद्रभद्र के साथ चौकी छोड़कर द्वारिका-द्वार पर गए।" "गया-गया, मैं गया।" "तुमने द्वार की चाबी रुद्रभद्र को दी?" "नहीं महाराज। मेरे सिर पर उस ब्रह्म राक्षस ने चिमटे से प्रहार किया। मैं बेसुध होकर गिर गया, फिर होश में आया तो अनर्थ हो चुका था।" "तुम्हें मरना होगा।” महासेनापति ने गम्भीर होकर बालुकाराय को पुकारा। बालुकाराय सम्मुख आए तो महाराज ने आज्ञा दी, “चौलुक्य को ले जाकर अभी शिरच्छेद करो।" "दुहाई महाराज!” चौलुक्य ने दाँत से तृण दाबकर कहा। “क्या प्राण-भिक्षा माँगते हो?" "नहीं महाराज, केवल थोड़ा समय मुझे भिक्षा में मिले।" "किसलिए?" “प्रायश्चित्त के लिए।" "कितना समय?" "केवल दो घड़ी।" "तो बालुक, चौलुक्य को बाँधा लो, उसकी तलवार छीन लो।" “यह नहीं महाराज, मृत्यु-दण्ड तक मुझे और मेरी तलवार को स्वतन्त्रता दीजिए।" "तुम चाहते क्या हो?" “पृथ्वीनाथ, समय कम है, विवाद में बहुमूल्य क्षण नष्ट हो रहे हैं। मुझे दो घड़ी को मेरी तलवार बख्श दीजिए।" दामो महता ने कहा, “महाराज, समय टेढ़ा है, चौलुक्य का ज़िम्मा मैं लेता हूँ।" "तो दामो, दो घड़ी बाद, तुम्हीं इसका सिर काट लेना। शायद मुझे फिर आज्ञा देने का अवसर न मिले।" उन्होंने अपना अश्व आगे बढ़ाया और दद्दा तलवार ऊँची किए, छलाँगे भरते द्वारिका-द्वार की ओर दौड़े। उन्होंने अपने कच्छी योद्धाओं को ललकारकर कहा, “भाइयो, यह प्राण और तलवार मुझे दो घड़ी को मिले हैं। इसी बीच हमें यह कलंक धो बहाना है। आगे बढ़ो, द्वार
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