पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२४९

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फ़तह मुहम्मद अपनी छोसी-सी टुकड़ी को लिए द्रुत-गति से लश्कर के पीछे हटकर पापमोचन की ओर बढ़ा और कुछ ही क्षणों में सुरंग के द्वार पर आकर घोड़े से उतर पड़ा। सभी योद्धा घोड़ों से उतर पड़े। फतह मुहम्मद ने सिद्धेश्वर की पीठ में तलवार की नोंक छुआकर कहा, “आगे चलो गुसाईं" परन्तु सिद्धेश्वर इस दासी-पुत्र का यह अपमानजनक व्यवहार न सह सका। उसने कहा, "क्या तेरे कहने से?" परन्तु फतह मुहम्मद ने तर्क नहीं किया। फुर्ती से रस्सी उसकी कमर में डालकर उसके दोनों हाथ पीछे कसकर बाँध लिए। और दो तुर्क सैनिकों के हाथ में रस्सी थमाकर कहा, “इस आदमी को तनिक भी दरेग करते देखो, तो तुरन्त सिर उड़ा दो।" इसके बाद उसने मशाल जलवाई और सिद्धेश्वर को धकेलता हुआ सुरंग में घुस गया। उसके पीछे उन दो सौ दैत्यों की सेना भी। सिद्धेश्वर रस्सियों से जकड़ा हुआ, तलवार की नोंक से धकेला जाकर सुरंग में बदहवास की भाँति चलने लगा। विश्वासघात करने के पश्चाताप से उसका मन ग्लानि और दुख से भर गया। पर अब क्या हो सकता था। अपमान और क्रोधाग्नि की ज्वाला से जलता-भुनता, शोक और अनुताप में डूबता-उतराता, तलवार की नोंक से धकेला जाता हुआ वह विश्वासघाती ब्रह्म-राक्षस विनाश की उस अंधेरी सुरंग में राह दिखाता, मन-ही-मन अछता-पछताता, बढ़ा चला जा रहा था।