पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२५०

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निर्णायक क्षण डंका बजाते और नरसिंहा फूंकते हुए, प्रधान तुर्क सेनापति मसऊद हाथियों पर पुल बनाने की सामग्री लेकर खाई में घुसा। दो सौ हाथियों पर मोटी-मोटी लोहे की जंजीरें, भारी-भारी रस्से, छोटे-बड़े तख्ते और पुल बनाने की आवश्यक सामग्री थी। हाथियों की आड़ लेकर हज़ारों बढ़ई अपने-अपने औजार पीठ पर बाँधा, बड़ी-बड़ी लोहे की ढालों के नीचे सिर छिपाए चल रहे थे। उनके पीछे अपने बलूची घुड़सवारों के बीच कसा हुआ अमीर हरी पगड़ी पर पन्ने का तुर्रा पहने, अपनी लाल दाढ़ी को फर्राता हुआ आगे बढ़ा। उसके पीछे बाणों का मेह बरसाते असंख्य योद्धा मशकों पर, हाथियों पर और घोड़ों पर तैरते ऐसे बढ़े चले आ रहे थे, जैसे भूमि पर ही हों। अभी सूरज ढलने लगा था। उसकी तिरछी पीली किरणें अमीर की तलवारों में पीली चमक उत्पन्न कर रही थीं। सेना गगनभेदी 'अल्लाहो-अकबर' के नारे बुलन्द करती हुई बरसाती नदी के प्रवाह की भाँति बढ़ी चली आ रही थी। मृत्यु और विपत्तियों को खेल समझने के अभ्यस्त पार्वत्य-प्रदेश के ये बर्बर तुर्किस्तानी सैनिक किसी भी बाधा को बाधा न समझ, दुर्धर्ष तेज से दौड़ते चले आ रहे थे। उनके आगे विजयी महमूद था, जिसे अपनी सतर्कता, साहस, योजना और युद्ध-नेतृत्व पर पूरा भरोसा था। सिंहद्वार पर जूनागढ़ के राव की चौकी थी। वे अपने दस हज़ार सैनिकों के साथ इस आती हुई विपत्ति का सामना करने को अग्रसर हुए। अभी तक युद्ध में इनका मोर्चा अक्षुण्ण बचा था। उन्होंने झटपट दूसरे मोर्चों पर सावधानी से रहने के सन्देश भेजे और कठिन युद्ध के लिए तैयार हो गए। संकट के क्षण को उन्होंने समझ लिया था। क्षण-क्षण में अन्य मोर्चों के समाचार उन्हें मिल रहे थे। आधे दिन से भी अधिक काल तक जो उनके नेत्रों सम्मुख खून की होली खेली गई थी, उसे देखते हुए भी वे अब तक अचल-अभंग रहे थे। अब उनकी बारी आ गई थी। सोरठी योद्धाओं ने तलवार खींच ली। राव ने सैनिकों को सम्बोधन करके कहा, “भाया, यह जीवन का अमर साखा है। याद रखना, जहाँ तुम्हारे पैर हैं, वहाँ से आगे तुम्हारे जीते-जी शत्रु के पाँव इस देवधाम को अपवित्र न करने पाएँ।” सोरठी योद्धा गरज उठे और अब उन्होंने एकबारगी ही कोट से बाणों का मेह बरसाना शुरू किया। देखते-ही-देखते मध्य द्वार के सम्मुख शत्रु उतरने लगे। वे तीरों से बिंध-बिंधकर घायल चीत्कार कर और घूम-घूमकर गिरने लगे। परन्तु उनके चीत्कार 'अल्लाहो-अकबर' और 'हर-हर महादेव' के घोर नाद में व्याप्त होने लगे। मरे हुए सैनिकों का स्थान दूसरे सैनिक तुरन्त लेते। एक घोड़ा गिरता तो दूसरा घोड़ा आता। मुर्दो से खाईं पट गई। पर मुर्दो और अधमरों को पैरों से रुंधते हुए दूसरे बर्बर सैनिक धंसे ही चले आ रहे थे। अब पुल बनाने वाले इस तट पर आकर पुल के रस्से कोट की दीवारों में जमाने का प्रयत्न कर रहे थे। उन पर ऊपर से बड़े-बड़े पत्थर लुढ़काए जा रहे थे। सिंहद्वार पर शत्रुओं के दल-बादल एकत्र हो रहे थे। यह देखकर राव ने अपने हज़ारों योद्धाओं को बड़े-बड़े पत्थरों से द्वार को भीतर से पाट देने का आदेश दिया था। बड़े-बड़े पत्थर इधर- उधर के मकानों,