त्रिपुरसुन्दरी
देवता का निर्माल्य लेकर जो तरुण भरुकच्छ से आया था, वह देवार्चन की समाप्ति पर महालय की सीढ़ियों के पास एक खम्भे के सहारे बैठा ऊँघ रहा था। इस समय महालय जनशून्य था। सभामण्डप के सब दीप बुझा दिए गए थे। बाहरी दीपाधारों पर जो दो-चार दीपक जल रहे थे, उन्हीं का क्षीण प्रकाश वहाँ पड़ रहा था। अर्द्धरात्रि व्यतीत हो चुकी थी। तभी अपनी पीठ पर किसी के हाथ का कोमल स्पर्श पाकर वह चौंक उठा। उसने मुँह फेर कर देखा, एक प्रगल्भ रूपसी बाला खड़ी मुस्करा रही थी। उसका यौवन जैसे दहकता हुआ अंगारा था। युवक ने कमर से लटकती तलवार की मूठ पर हाथ धर कर कहा, "कौन हो तुम?" बाला खिलखिलाकर हँस पड़ी, हँसते-हँसते युवक पर कुटिल भ्रूपात करके कहा—
"मूर्ख, स्त्री से डरता है?"
"मैं किसी से नहीं डरता।"
"फिर तलवार पर हाथ क्यों?"
युवक ने स्थिर होकर कहा, "कौन हो तुम?"
युवती उससे सटकर बैठ गई, हँसकर उसने कहा, "कहो, कैसी हूँ?"
रूप के उस दहकते हुए अंगारे के स्पर्श से तरुण का तारुण्य जाग उठा, उसने कहा, "कहो, कौन हो?"
"मैं सोमा हूँ।"
"सोमा कौन?"
"त्रिपुरसुन्दरी की भूमिका।"
"तो मुझसे तुम्हारा क्या काम है?"
"तुम यहाँ अकेले बैठे क्या कर रहे हो, बुद्ध?"
युवती युवक के और पास खिसक गई, उसके अनावृत यौवन का सुरभित, सुकोमल, सुखस्पर्श पाकर युवक चल-चंचल हो गया। सुन्दरी ने अपने कन्धे से धकेलते हुए और बंकिम कटाक्ष से देखते हुए कहा—
"चलोगे मेरे साथ?"
"कहाँ?"
"त्रिपुरसुन्दरी के दरबार में।"
युवक भीत नेत्रों से युवती को देखने लगा। त्रिपुरसुन्दरी की रहस्यपूर्ण वाम पूजन की विधि की बहुत बातें उसने सुनी थीं। युवती ने अपना उन्मत्त यौवन युवक के शरीर से सटा दिया। युवक के शरीर की नसों का रक्त, गर्म होकर पिघले हुए सीसे की भाँति दौड़ने लगा।
उसने हकलाकर कहा, "क्या सच कहती हो?"
"तुम्हारा बड़ा भाग्य है। महामाया के चरणों में तुम्हारी पुकार हुई है।" बाला ने एक प्रकार से युवक को अंक में भर कर उठा लिया। युवक की सोचने की शक्ति कुण्ठित हो