पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

गई। वह विमूढ़ की भाँति तरुणी के पीछे चल दिया।

महालय के वाम पाश्र्व में जो विस्तृत उद्यान था, उसके उस ओर एक विशाल द्वारशथा। द्वार के उस पार त्रिपुरसुन्दरी का मन्दिर था। यह मन्दिर चारों ओर से ऊँची-ऊँची दीवारों से घिरा था। मन्दिर के आसपास चारों ओर कुमारी, काली, कपाली, चामुण्डा आदि नव-शक्तियों के नौ मन्दिर थे।

त्रिपुरसुन्दरी के सम्बन्ध में विविध किंवदन्तियाँ थीं। अनेक रस-रहस्य की बातें लोग करते थे। वहाँ प्रत्येक गोख और स्तम्भ पर शिवशक्ति की मिथुन-मूर्तियाँ खुदी थीं। मूर्तियाँ नग्न और अश्लील और भिन्न-भिन्न प्रकार के काम-सम्बन्धी आसनों की थीं। उनमें कुछ अत्यधिक नग्न, अश्लील, काम-विकार और अप्राकृतिक संयोगों को प्रदर्शित करती थीं।

मन्दिर के द्वार पर विशाल भैरवी चक्र बना हुआ था। आश्विन की नवरात्रि में इस मन्दिर की चहल-पहल बहुत बढ़ जाती थी। दूर-दूर के कौल वामपन्थी उस उत्सव में सम्मिलित होते थे। 'महाशक्ति त्रिपुरसुन्दरी' का स्तवन, कीर्तन और पूजन, उत्तर कौल-क्रिया से कौलिक सम्प्रदाय के शाक्त करते थे। इन दिनों यहाँ नित्य मद्य, मांस और मत्स्य मधु का नैवेद्य चढ़ता, भैरवी चक्र की रचना होती, और भक्तगण भोगविलास को मोक्ष का परम साधन मानकर, वर्ण-जाति का विचार छोड़कर, महाशक्ति महामाया त्रिपुरसुन्दरी की आराधना करते थे। मन्दिर के एक गोपनीय भाग में शंकर की अर्धाङ्गिनी महाशक्ति की आराधना होती थी। और उसकी पूजा-अर्चना परम्परा से चली आती हुई-दीक्षित स्त्री-पुरुषों के समक्ष, अवर्ण्य विधि से होती थी। बिना दीक्षित हुए व्यक्ति का वहाँ पहुँचकर जीवित लौटना सम्भव न था।

सुन्दरी की नूपुर-ध्वनि नवयुवक के रक्त में मदिरा का मद उंड़ेल रही थी। उसकी विलासलीला, अनावृत सुगठित देह, वीणा-विनिन्दित स्वर, उसके सुप्त यौवन को ठोकर मार-मारकर जाग्रत कर रहे थे। युवती के स्वर्णगात्र की मादक गंध से आवेशित हो युवक मन्त्रबद्ध सर्प की भाँति उसके साथ-साथ चला जा रहा था।एकाएक उसने साहस करके कहा—

"कहाँ ले जा रही हो-उस अगम क्षेत्र में मुझे?"

"भय मत कर!" युवती ने उसके कान में मुँह लगाकर कहा। उसके कान और गण्डस्थल से युवती का गर्म ओष्ठ छू गया। उसे रोमान्च हो आया। फिर युवती ने अपने नर्म-गर्म हाथों में उसकी कलाई पकड़ ली और उसे एक तंग अँधेरी राह में खींच ले चली। बड़ी देर तक वह उस अँधकारपूर्ण टेढ़े-मेढ़े मार्ग में चलती रही। एकाएक ठहर कर उसने एक गुप्त द्वार पर पहुँच कर संकेत किया। किसी ने झरोखे से झांक कर पूछा, "कौन है?"

"मैं सोमा हूँ।'

उत्तर में एक पुरुष हाथ में दीपक लिए बाहर आया। सोमा को देखकर उसने पूछा—

"प्राप्त हुआ?"

"यह है।"

जिस पुरुष ने आकर द्वार खोला था, वह काला-मुस्टण्ड और दिगम्बर था। उसकी आँखें लाल हो रही थीं और वह मद्य के नशे में झूम रहा था। उसने सिर से पैर तक युवक को देखा, हास्य से उसके काले-काले मोटे होंठ फैल गए और बड़े-बड़े पीले दाँत बाहर निकल