पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२५२

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महता की दृष्टि दामोदर महता युद्ध नहीं कर रहे थे, परन्तु वे सारे ही मोर्चों पर बारीक दृष्टि रख रहे थे, किन्तु उनके मस्तिष्क को आनन्द का एकाएक गायब हो जाना ही मथ रहा था। यद्यपि इसका स्पष्ट कारण वे नहीं समझ पाए थे, परन्तु यह वे निश्चित रूप से समझ गए थे, कि वह शत्रु का बन्दी हो गया है। यह भी उनके जानने से शेष न रह गया था कि रुद्रभद्र शत्रु को सहायता दे रहा है। परन्तु कैसी? यह वे भी न समझ पाए थे। फिर भी किसी अतर्कित और अकल्पित भयानक घटना की वे प्रतीक्षा कर रहे थे; परन्तु वह क्या हो सकती है, नहीं समझ पा रहे थे। एक बात और थी, आनन्द के साथ सिद्धेश्वर भी गायब था। आखिर ये दोनों कहाँ गए? क्या सिद्धेश्वर भी बन्दी है! तब तो बात ही दूसरी हो जाती है, यही उलझन थी जिसे दामो महता इस समय नहीं सुलझा सके थे। गत रात से इस क्षण तक उन्होंने पीठ नहीं खोली थी। सारे आक्रमणों की स्थिति पर उन्होंने दृष्टि रक्खी थी। और अब इस क्षण संकट के लक्षण वे प्रत्यक्ष देख रहे थे। उन्हें अपना निर्णय करने में देर नहीं लगी। ज्योंही उन्होंने जहाज में आग लगी देखी, वे शेष दो जहाज़ों को कौशल से बचाकर खाड़ी के एक सुरक्षित स्थान में ले गए। नौकाओं के धुनर्धरों को शत्रुओं पर बाण-वर्षा करते हुए पीछे हटकर जहाँ तक सम्भव हो सुरक्षित रहने के उन्होंने आदेश दिए। कमा लाखाणी को योजना का सारा रूप समझा दिया। उनका ख्याल था कि शत्रु का ध्यान शीघ्र ही जूनागढ़-द्वार से हट जाएगा। और वह सिंह-द्वार पर ही मुख्य आक्रमण करेगा। वही हुआ भी। दामो महता की इस योजना और कौशल को शत्रु ने नहीं समझा। इधर से निवृत्त हो उन्होंने द्वारिका-द्वार की गम्भीर स्थिति पर विचार किया। द्वार की स्थिति बहुत ही खराब हो गई थी-परन्तु इस समय बड़े-बड़े पत्थरों और मलबे के पहाड़ से वह पट चुका था। तथा अमीर के सिंहद्वार पर धंसारा करते ही वहाँ भी दबाव कम पड़ गया था। यद्यपि इस समय वह द्वार एक प्रकार से अरक्षित ही था और कोई भी सेनापति अब उसके लिए और कुछ किया भी नहीं जा सकता था। दलपति और नायक जो कुछ कर सकते थे, कर रहे थे। जिस समय वह भयानक घटना घटी-चौलुक्य खाई में गिरे और महाराज भी मोट में कूदे-उस समय दामो वहाँ से काफी फासले पर गणपति-मन्दिर के इधर-उधर गहरी चिन्ता में सोचते-विचारते चक्कर लगा रहे थे। इधर शत्रु थे ही नहीं। अपितु यह भाग एक प्रकार से शून्य हो रहा था। त्रिपुरसुन्दरी के बाहरी मैदान में रुद्रभद्र और उसके पाखण्डी सङ्गी साथी धूनियां तप रहे थे। जैसे इनके लिए यह महा-विपद् काल कोई मूल्य ही नहीं रखता था। इन धूर्तों को इस प्रकार निश्चिन्त देख, दामो महता को अब इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं रह गया था, कि ये लोग अवश्य ही किसी गहरी अभिसन्धि में लिप्त हैं। रुद्रभद्र के ऊपर उनकी तीव्र दृष्टि थी। यद्यपि वे उसकी दृष्टि से सर्वथा बचे हुए थे। उनके दूत क्षण-क्षण पर इधर-उधर के समाचार ला और उनके आदेश ले जा रहे थे। वे प्रत्येक क्षण किसी अप्रत्याशित घटना की प्रतीक्षा कर रहे थे, कि इसी क्षण महाराज महासेनापति के वहाँ न था,