पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२६५

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नष्ट प्रभात रात ही में देवपट्टन में भगदड़ मच गई थी। हिन्दू योद्धा और पुजारी प्राण ले-लेकर जल-थल की राह भाग चले थे। प्रभात होते ही तुर्कों के दल-बादल नगर-महालय लूटने को अल्लाहो-अकबर का नाद करते टूट पड़े। शत्रु के भय से हिन्दू मछुए होड़ी आदि जो जिसके हाथ लगा, उसी में बैठकर समुद्र में तैरने लगे। पर इस समय समुद्र भी अभागे हिन्दुओं का शत्रु हो गया था। उसमें बड़ी-बड़ी पहाड़ की चट्टान के समान लहरें उठने लगीं। अनेक अभागे उन लहरों की चपेट में आकर समुद्र-गर्भ में विलीन हो गए। अनेक लोग शत्रुओं के हाथ बन्दी हुए या कट मरे। देखते-ही-देखते देवनगर धांय-धांय कर जलने लगा। महमूद अपने काले घोड़े पर सवार हो विजयोल्लास से भरा हुआ दल-बल सहित महालय की पौर में धंसा। इस विजय का महमूद को बड़ा गर्व था। हर्ष से उसका हृदय उछल रहा था। महमूद और उसके मन्त्रीगण आश्चर्यचकित होकर महालय की भव्य शोभा निरखने लगे। उस अगम्य देवस्थली में उनके भ्रष्ट पैरों के पड़ने से देवस्थान मलिन होने लगा। आँखें से कभी न देखी और कानों से कभी न सुनी हुई शोभा और ऐश्वर्य की राशि देख महमूद और उसके मन्त्रीगण विमूढ़ हो गए। उसे अपने गज़नी के राजमहल के ऐश्वर्य का बड़ा गर्व था। परन्तु सोमनाथ महालय के ऐश्वर्य को देखकर उसका गर्व खण्डित हो गया। वह आगे बढ़कर गर्भ-गृह में घुसा। ज्योतिर्लिंग के तीन टुकड़े बिखरे हुए पड़े थे। गंग सर्वज्ञ का छिन्न शरीर भी उसी भाँति देव- सान्निध्य में पड़ा था। उनका रक्त बहकर सूख गया था। उसने मन्दिर के पुजारियों और अधिकारियों को सम्मुख आने की आज्ञा दी। बहुत पुजारी भाग गए थे। जो शेष थे, वे कृष्णस्वामी को आगे करके डरते-काँपते अमीर के सम्मुख करबद्ध आ खड़े हुए। कृष्णस्वामी ने हाथ जोड़कर कहा, “पृथ्वीनाथ, जितना धन आपको चाहिए, हम दण्ड देने को तैयार हैं, परन्तु महालय को भंग मत कीजिए। यह हमारा हिन्दुओं का अति प्राचीन देवस्थान है। हम दीन जन आपसे अब यही भिक्षा माँगते हैं।" महमूद ने कहा, “ ज़र-जवाहर के लालच से इस्लाम के बन्दों का खून बहाने मैं यहाँ नहीं आया हूँ। मैं मूर्तिपूजकों के धर्म का तिरस्कर्ता, मूर्तिभंजक महमूद हूँ, बुतपरस्ती के कुफ्र को दूर करना मेरा धर्म है। मैं मूर्ति बेचता नहीं, मूर्तियों को तोड़कर अल्लाताला खुदा के पैगम्बर मुहम्मद की आन कायम करता हूँ।" इतना कहकर उसने अपने हाथ की रत्नजटित सुनहरी छड़ी से तीन बार उस भग्न ज्योतिर्लिंग पर आघात किया और सब मूर्तियों तथा महालय को तोड़ने-फोड़ने का हुक्म दिया। देखते-ही-देखते उसके हज़ारों बर्बर सैनिक महालय की मूर्तियों, महराबों और तोरणों को तोड़ने-फोड़ने और ढाने लगे। अब महमूद ने कृष्णस्वामी से धन-रत्न-कोष की चाबियाँ तलब कीं। अछता-पछता कर कृष्णस्वामी ने देवकोष महमूद को समर्पण कर दिया। उस देवकोष की सम्पदा को देखकर महमूद की आँखें फैल गईं। भू-गर्भ-स्थित चहबच्चों में स्वर्ण, रत्न, हीरा, मोती, माणिक, आदि भरे थे। उस दौलत का अन्त न था। उस अटूट सम्पदा को देखकर महमूद हर्ष