इसमें इतने बड़े-बड़े बुर्ज व बड़े-बड़े द्वार थे, जहाँ अम्बारी वाले हाथी अनायास ही निकल सकते थे। समुद्र-तट नगर से कोई पौन मील के अन्तर पर था। वह अति विशाल और भव्य था। मार्ग के दोनों ओर विशाल वन, उपवन, बावड़ी, धर्मशाला, अतिथिगृह और वाटिकाएँ बनी थीं। जहाँ विविध फल-फूल लदे हुए थे तथा भाँति-भाँति के पक्षी कलरव करते थे। वसन्तघोषी कोयल आम्र-मंजरी पर बैठी कुहू की ध्वनि करती और आम चम्पा, तमाल, अशोक वृक्षों की सघन छाया में स्त्री-पुरुष स्वच्छंद विहार करते तथा उन्मुक्त नैरोग्य समुद्री वायु का सेवन करते थे। इन दिनों खम्भात में बहुत भीड़ हो गई थी। देवपट्टन के सब ब्राह्मण-परिवार, सेठ, उनके परिजन और इधर-उधर के भागे हुए लोग वहाँ भर गए थे। सैनिक भी बहुत थे। सोमनाथ और गंदावा दुर्ग के पतन के समाचार सुनकर सावंतसिंह चौहान को दुर्ग सौंप, महाराज वल्लभदेव अपना सदर मुकाम यहाँ से उठाकर बहुत से धनी परिवारों तथा ब्राह्मणों सहित अपनी सैन्य ले आबू को रवाना हो गए थे। इससे सर्वत्र उदासी, बेचैनी और चिन्ता की लहर फैल रही थी। कारबार ढीले हो रहे थे। लोग आशंका से भरे थे।
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