पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२७६

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खम्भात खम्भात गुजरात का वैकुण्ठ कहलाता था। वहाँ की प्रकृति-शोभा अपूर्व थी। प्रकृति और कला दोनों ही के संयोग ने इस कल्याण-नगरी को गुजरात का शिरोभूषण नगर बना रखा था। नगर का बहुत बड़ा विस्तार था। महत्त्वपूर्ण समुद्र-तट पर होने के कारण उसकी व्यापार-महत्ता और बढ़ गई थी। अरब और रोम के व्यापारी जहाज़ खम्भात ही के द्वार पर भूस्पर्श करते थे। देश-विदेश के वणिक्-व्यापारी यहाँ सदैव बने ही रहते थे। समुद्र-तट की तर-गरम वायु, तरंगित समुद्र की सुषमा, और जल-थल के पक्षियों का कलरव एवं पुष्पों की गन्ध, केला, नारियल, आम आदि वृक्षों की सघन घन छटा देखते ही बनती थी। सान्ध्य बेला में अस्तंगत सूर्य-किरणों की लालिमा अकथ शोभा-विस्तार करती थी। नगर में अनेक उपवन, ताल, बावड़ी और रमणीय स्थान थे। वहाँ के लोग भी अत्यन्त सम्पन्न, सुरुचिपूर्ण, स्वच्छ और सभ्य थे। नगर की समृद्धि इतनी थी कि वहाँ के व्यापारियों की हाट में हीरा, मानिक, मोती और मुहरों के ढेर लगे रहते थे। अरब समुद्र से निकलने वाले गजमुक्ताओं की उन दिनों खम्भात ही सबसे बड़ी मण्डी थी। इस समय नगर का क्षेत्रफल पन्द्रह गाँव की सीमा में तीस मील तक फैला था। नगर के प्रान्त में समुद्र-तट पर भूरे रंग के पत्थर का एक दुर्ग था। दुर्ग बहुत विशाल और ऊँचा था। उसके चारों ओर की खाई साठ हाथ चौड़ी और इतनी ही गहरी थी, जो सदा समुद्र के जल से भरपूर रहती थी। धनी जनों की हवेलियाँ पत्थर की तथा सर्वसाधारण के मकान दो फीट की लम्बाई वाली पैंतीस-पैंतीस सेर की वज़नी, भट्टी में पकाई हुई समचौरस या लम्बचौरस ईंटों के बने हुए थे। परन्तु इस समय खम्भात का गौरव-स्वरूप देवाधिष्ठान अचलेश्वर महादेवालय था, जो समुद्र के मस्तक पर एक अति भव्य उत्तम शृंग पर भूरे रंग के पत्थर का बना सुशोभित हो रहा था। जिसके स्वर्ण-क -कलश मध्याह्न के सूर्य में जगमग करते दस-दस गाँव के लोगों को दीख सकते थे। मन्दिर में सैकड़ों ब्राह्मण निरन्तर शिवस्तोत्र का पाठ करते थे। मन्दिर का विशाल मण्डप स्फटिक के खम्भों पर आधारित था। जहाँ जगह-जगह वेद, पुराण आदि के वाक्य तथा देवमूर्तियाँ खुदी हुई थीं, इसे कैलास मण्डप कहा जाता था। मन्दिर में प्रतिष्ठित शिवलिंग की प्रतिष्ठा, सोमनाथ के बाद अग्रगण्य थी। लिंग के सम्मुख स्फटिक ही का विशाल नन्दी था। देवता ही नहीं, देवता के पुजारी नृसिंह स्वामी की कीर्ति भी गुजरात में दिगन्त व्याप्त थी। राजा और प्रजा दोनों ही उन्हें एकनिष्ठ ब्रह्मचारी और महापुरुष की भाँति पूजते थे। नृसिंह स्वामी गत तीस वर्षों से देव-सेवा कर रहे थे। उनके उन्नत ललाट और प्रसन्न मुद्रा देखते ही छोटे-बड़े सब मोहित हो जाते थे। वे सभी की श्रद्धा और भक्ति के पात्र थे। इसके अतिरिक्त और भी अनेक भव्य देवालय थे। जहाँ के प्रत्येक प्रभात, मध्याह्न और सन्ध्याकाल के स्तवन से समस्त खम्भात नगर मुखरित हो उठता था। खम्भात उद्योग-शिल्प में भी वाणिज्य की भाँति ही प्रख्यात था। हरएक वस्तु के पृथक्-पृथक् बाज़ार थे। नगर का राजमार्ग बड़ा विशाल था। नगर दृढ़ प्राचीर से घिरा था।