पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२८

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विकराल दिगम्बर महाकाय व्यक्ति न जाने कहाँ से निकल आया। उसके सर्वांग में सिंदूर लगा था और हाथ में एक विशाल त्रिशूल था। उसने अनायास ही युवक को धरती पर पटक दिया, और त्रिशूल उसके कण्ठ पर रख दिया। फिर चिल्लाकर कहा, "जय माया!"

सोमा भय से चीत्कार कर दौड़ी। उसने त्रिशूल को दोनों हाथों में थाम कर कहा, "नहीं-नहीं, यह महाकाल का नैवेद्य है। यहाँ इसका रक्त नहीं गिरेगा।"

पुरुष ने त्रिशूल हटा लिया। वह रुद्रभद्र की ओर देखने लगा। सोमा ने रुद्रभद्र के कानों में मुँह लगाकर कहा, "यह महाकाल का नैवेद्य है, इसे प्रभात में महाकाल को बलि देना होगा। अभी इसे मेरे सुपुर्द कीजिए प्रभु।"

"समझा, तू इस पर आसक्त है। पापिनी! दूर हो।' वह खड़-खड़ करके हँस पड़ा, और पात्र में मुँह लगाकर मद्य पीने लगा।

सोमा ने फिर उसके कान में मुँह लगाकर कुछ कहा। इस पर रुद्रभद्र ने सोमा को पीछे धकेलते हुए खड़े होकर कहा, "झूठ-झूठ, दूर हो तू चुडैल" फिर उसने वज्र गर्जना करके कहा, "इस पापिष्ठ को खम्भे से बान्धो।"

युवक को खम्भे से कसकर बान्ध दिया गया। सोमा रुद्रभद्र से घर्षणा खाकर भी उठी और उसने मद्य से भरा पात्र युवक के मुँह से लगाकर कहा, "पी जा अधर्मी! महामाया का प्रसाद है, इससे साहस बढ़ेगा।"

युवक बिना विचार किए गटागट मद्य पी गया। पात्र में जो बचा, उसे सोमा ने पीकर पात्र धरती पर फेंक दिया। फिर वह चारों ओर घूम-घूम कर अपलाप-सा करने लगी।

रुद्रभद्र ने वज्र-गर्जना करके कहा, "लाओ निर्माल्य।"