पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२७

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आए। उसने कहा, "तब आओ भीतर", सोमा ने युवक को भीतर धकेल लिया। मुस्टण्ड ने द्वार बन्द कर लिया। दीपक के पीले क्षीण प्रकाश में उस भयानक पुरुष को देखकर युवक सहम गया। पुरुष आवश्यकता से अधिक लम्बा और बेडौल था। उस दीपक के पीले प्रकाश में उसे देखकर युवक काँपने लगा। वे अनेक अँधेरे अलिन्दों और कक्षों को पार करके एक प्रशस्त प्राङ्गण में पहुँचे। हाथ का दीपक एक आधार पर रखकर पुरुष ने कहा, "शस्त्र मुझे दे" और उसने अनायास ही युवक की तलवार हस्तगत कर ली।

युवक आतंक से जड़ हो गया। सोमा ने बंकिम कटाक्ष से उसे घूर कर धीरे से कहा, "चल-चल! देवस्थान में शस्त्र की क्या आवश्यकता है! यहाँ भगवती महामाया की जाग्रत ज्योति है।" वह उसे धकेलती हुई एक भीतरी अलिन्द में ले गई।

वहाँ दैत्य के समान, सर्वथा नग्न एक भीमकाय कृष्णवर्ण पुरुष, व्याघ्रचर्म पर बैठा कुछ जप कर रहा था। एक लाल वस्त्र-खण्ड उसके नाभि-देश में अस्त-व्यस्त पड़ा था।

एक बड़ा-सा मद्य-पात्र उसके सम्मुख धरा था जिसमें से वह बार-बार मद्य पी रहा था। उसकी घनी काली भौंहों के नीचे बड़े-बड़े पलक झुके हुए थे और खिचड़ी घनी दाढ़ी में छिपे मोटे-मोटे काले होंठ तेज़ी से हिल रहे थे।

सोमा ने युवक को उस पुरुष के आगे धकेलकर कहा, "साहस कर रे, महामाया के चिरकिंकर भूतनाथ भैरवावतार रुद्रभद्र को प्रणिपात कर।"

युवक काँपता-काँपता भूमि पर लोट गया।

रुद्रभद्र ने उसकी ओर अपने तन्द्रिल नेत्र उठाकर उँगली से संकेत करते हुए उस स्त्री से कहा—

"यही है वह?"

"यही है।"

"तूने त्रिपुरसुन्दरी का निर्माल्य सर्वज्ञ को दिया है?"

"सर्वज्ञ ने स्वयं ही ग्रहण कर लिया प्रभु!" युवक ने करबद्ध हो कहा।

"अरे अधम, तुझे आदेश क्या था? क्या तुझे महामाया के कोप का भय नहीं?"

युवक ने सामने महामाया की विकराल मूर्ति हाथ में त्रिशूल लिए देखी। रुद्रभद्र ने कोप कर कहा, "अधम, महामाया के कोप में गिर कर भस्म होगा तू।" फिर पात्र में मुँह लगाकर गटागट बहुत-सी मद्य पीकर जलती हुई दृष्टि से युवक की ओर देखा। युवक ने प्रणिपात करके कहा, "प्रभु, अपराध क्षमा हो, सर्वज्ञ की आज्ञा उल्लंघन करने की शक्ति मुझ में नहीं थी।"

इसी समय भीतर से दो मुस्टण्ड मूर्तियाँ निकल आईं। वे भी दिगम्बर और मद्य से उन्मत्त थीं। एक ने कहा, "बाबा, इसे आज महाकाल की बलि दीजिए।"

"देवार्पण होगा रे तू?" रुद्रभद्र ने लाल-लाल आँखें उठाकर पूछा।

"नहीं, नहीं बाबा, मुझे जाने दीजिए।"

परन्तु आगत मुस्टण्डों में से एक ने अपने बलिष्ठ पंजे में उसकी कलाई पकड़ ली।

उसने कहा, "पापी, महामाया के मन्दिर को भ्रष्ट करके भाग जाना चाहता है।"

दूसरे ने कहा, "मन्दिर को भ्रष्ट करके कोई नर जीवित यहाँ से नहीं जा सकता।"

रुद्रभद्र ने फिर मद्य पी और मेघगर्जना के स्वर में पुकारा, "व्याघ्रदन्त" एक