सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गनगौर उस दिन गनगौर का पर्व था। इस पर्व पर खम्भात में बड़ा भारी मेला लगता है। गौरी की मूर्ति का समुद्र में विसर्जन होता है। क्षणभर के लिए आबाल-वृद्ध सब चिन्ता भूलकर, उत्तम-उत्तम वस्त्राभूषण पहनकर अपने-अपने वाहनों में सजे-धजे गनगौर पूजने को घर से निकले थे। घुड़सवार सैनिक सुरक्षा और व्यवस्था कर रहे थे। नगर के चौक में गौरी की प्रतिमा लाकर रखी गई थी। समुद्र-तीर पर प्रतिमा को ले जाने की तैयारी होने लगी। घुड़सवार सैनिक पंक्तिबद्ध खड़े हो गए। नाना प्रकार के वाद्य बजने लगे। विविध रंग- बिरंगी पताकाएँ लिए बालक-बालिकाएँ आनन्द से किलकारी भरने लगे। अभी सूर्योदय हुए एक प्रहर भी नहीं हुआ था। फिर भी सूर्य की किरणें तेज़ हो गई थीं। गौरी की प्रतिमा एक स्वर्ण-निर्मित शिविका में रखी गई थीं। उसको सेठों के युवक पुत्रों ने उठा लिया और हर्ष से उछलते हुए हृदयों से देवी-प्रतिमा को ले चले। गौरी की प्रतिमा पीले रंग के रेशमी वस्त्रों से अलंकृत थी। अनेक प्रकार के रत्न,मोती और स्वर्णालंकारों से उसका श्रृंगार किया गया था। शिविका के आगे-आगे नगर के शिष्ट नागरिक और प्रतिष्ठित सेठ-साहूकार चल रहे थे। और पीछे के भाग में नगर की कुमारिकाओं को आगे करके सब सुहागिर्ने, विविध अलंकारों से अलंकृत हो चल रही थीं। इनकी केश-राशि नाना प्रकार के फूलों से शृंगारित थीं। ऐसा प्रतीत होता था कि मानो वसन्त-श्री मूर्तिमती होकर उस दिन खम्भात में शोभा-विस्तार कर रही थी। अनेक कुमारियाँ हाथ में चाँदी के डण्डे लिए शिविका के पीछे चल रही थीं। अनेक सोने के डण्डे वाले चन्दन के पँखों से प्रतिमा की सेवा करतीं या चंवर डुलातीं चल रही थीं। कुछ कुमारिकाएँ और सुहागिनें अपने वीणा- विनिन्दित स्वर से गौरी का स्तवन करती जा रही थीं। इस प्रकार गौरी की प्रतिमा का यह समारोह समुद्र तट पर जा पहुँचा। वहाँ एक ऊँचे मंच पर प्रतिमा का डोला रखा गया। समुद्र में सैकड़ों छोटी-बड़ी तरणियाँ तैर रही थीं। भव्य समारोह से सब नर-नारी देवी-प्रतिमा का दर्शन कर, गाते-बजाते, प्रतिमा को एक सजित तरणी में बैठाकर, और स्वयं भी तरणियों में बैठ-बैठ कर जल-विहार करने लगे। स्नान-पूजन के बाद समुद्र की सुनहरी रेती में मेला जमा।बालिकाएँ, ठौर-ठौर गरबा गाने, हँसने-खेलने-उछलने लगीं। लोग अपने साथ लाए पकवानों का भोग लगाने लगे। सारा ही दिन खम्भात-निवासियों ने समुद्रतट के विहार में लगाया, सान्ध्यवेला में देवी की सवारी धूम-धाम से पीछे फिरी। कुलांगनाएं गाती-बजातीं और युवकगण विविध खेल- क्रीड़ा करते पीछे लौटे। आकाश में चन्द्रोदय हुआ। नगर-द्वार पर दीपावली और अग्नि-क्रीड़ा का भव्य दृश्य था। धीरे-धीरे सारा ही जनजमाव नगर-द्वार पर आकर आनन्द-मग्न हो अग्नि-क्रीड़ा देखने लगा। नर-नारी अपने यूथ बाँधकर गाने-बजाने और नृत्य करने लगे। ढोल, दमामे, तुरही, शंख और घण्टों का तुमुल नाद होने लगा। इतने ही में दैत्य के समान काली-काली मूर्तियाँ न जाने कहाँ से घोड़े दौड़ातीं और तलवारें घुमातीं इन आनन्दमग्न निरीह नर-नारियों पर टूट पड़ीं। पहले एक, फिर अनेक,