सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वज्रपात धर्म-प्राण मदन जी सेठ और उनका पुत्र देवचन्द्र, दोनों ही प्राणों का मोह छोड़ नृसिंह स्वामी और देव-रक्षण के विचार से समय और बलाबल का बिना ही विचार किए, पागल की भाँति मन्दिर की ओर दौड़े जा रहे थे। वे दौड़ते हुए घुड़सवार पठानों की झपट से बचते हुए, कभी गली-कूचों और कभी किसी मकान या वृक्ष की आड़ में होते हुए दौड़ रहे थे। कितनी ही बार उन्हें भागती हुई भीड़ में धक्के खाकर गिरना पड़ा। घोड़ों की टापें उन्हें रौंदती चली गईं। इस संघर्ष में पिता-पुत्र का साथ भी छूट गया। परन्तु इस समय मदनजी सेठ को न प्राणों की परवाह थी, न पुत्र की। वह जैसे भी सम्भव हो, देवता और उसके पुजारी नृसिंह-स्वामी की रक्षा करना चाह रहे थे। वह सोच रहे थे–अमीर यदि उसकी करोड़ों की सम्पत्ति लेकर भी देव-भंग न करे, स्वामी जी को छोड़ दे, तो उसे सब सम्पत्ति दे देंगे। मदनजी सेठ ने मन्दिर के निकट पहुँच कर देखा–मन्दिर की ध्वजा टूट चुकी है, सैकड़ों बर्बर सैनिक मन्दिर के कंगूरों पर चढ़े मन्दिर को ढहा रहे हैं। ब्राह्मणों और पुरजनों की लाशें जहाँ-तहाँ पड़ी हैं। बहुत-से बर्बर सिपाही लूट का माल लाद-लादकर ले जा रहे हैं। सेठ का सिर घूमने लगा। उसी समय कोई वस्तु लुढ़कती हुई उसके पैरों में आकर गिरी। सेठ ने झुककर उसे उठा लिया। रक्त से उसका हाथ भर गया, उसने देखा और उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। हे ईश्वर! वह नृसिंह स्वामी का कटा हुआ सिर था। सेठ में खड़े होने की सामर्थ्य न रही। सिर को गोद में लिए वह वहीं भूमि पर गिर गया। सैकड़ों आततायी घुड़सवार, पैदल उसे मुर्दा समझकर कुचलते हुए चले गए। सेठ मूर्च्छित पड़ा परन्तु उसके प्राण नहीं निकले। रात आई और चली गई। सेठ की मूर्छा टूटी। उसने देखा-आकाश में शुक्र नक्षत्र पूर्व दिशा में अकेला टिमटिमा रहा है। सामने भग्न देवस्थान विशाल दैत्य की भाँति खड़ा है। मनुष्य का नामोनिशान भी वहाँ नहीं है। वह उठा। मुर्दो और अधमरों को रूंधता नगर-द्वार पर पहुँचा। वहाँ दूर तक गनगौर से लौटे हुए नर-नारियों के छिन्न-छिन्न शरीर भूमि पर पड़े थे। उनके रंग-बिरंगे वस्त्र समुद्री हवा में फड़फड़ा रहे थे। गीध और चीलें आकाश में मंडरा रही थीं। सूर्य लाल- लाल आँखें किए ऊपर उठ रहा था। सेठ अपने घर लौटा। घर के द्वार पर सन्नाटा था, द्वार खुला था, पर भीतर किसी जीवित व्यक्ति के चिह्न न थे। सब घर अस्त-व्यस्त लुटा-पिटा था। हे ईश्वर, क्या मेरे कुटुम्ब में एक भी पुरुष जीवित नहीं रहा! उसे अब अपने पुत्र देवचन्द्र की याद आई। उसने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर देवचन्द्र को पुकारा। धीरे-धीरे एक स्त्री मूर्ति आकर उसके ऊपर गिर गई। यह सेठ की पत्नी थी। उसने रोते-रोते कहा- "वे सब कुछ लूट ले गए। वे कंचनलता को भी..." आगे वह बोल न सकी, और मूर्छित हो भूमि पर गिर गई। मदनजी सेठ भूमि पर बैठ गए। पत्नी को यत्न करके उन्होंने सावधान किया। फिर रहा।