बरस रहे थे और भारी-भारी पत्थर भी ढुलकाए जा रहे थे। परन्तु ये दोनों जीवट के पुरुष किसी भी बाधा को न मानकर, उन अगम चट्टानों पर ऊपर खिसक रहे थे। बुर्ज कुछ हाथ रह गया था। अमीर का वज़नी शरीर सिर्फ उँगलियों की पोरों पर लटक रहा था। और फतह मुहम्मद बन्दर की भाँति पंजों के सहारे दीवार से चिपका था। अमीर का दम फूल रहा था। उसने युवक से हाँफते हुए कहा- “बहादुर, क्या तुम में अब भी दम है?" “अब देर क्या है आलीजाह।" "तो तू हिम्मत कर।" "आलीजाह गुस्ताखी माफ फरमाएँ” उसने इतना कहा, और उछलकर अमीर के कन्धे पर जा चढ़ा। अमीर लड़खड़ाया, उसकी उँगलियाँ चट्टान से खिसकने लगीं, परन्तु इसी क्षण फतह मुहम्मद चीते की भाँति उछाल मारकर बुर्ज़ पर जा पहुँचा। बुर्ज पर पहुँचते ही राजपूत ‘मारो-मारो!' कहके उसपर टूट पड़े। पर उसने एक हाथ से तलवार घुमाते हुए कमर में बँधी रस्सी नीचे लटका दी तथा एक गोख में पैर अड़ाकर पीठ के बल गिर गया। गिरे-गिरे ही वह अपने सिर के चारों ओर तलवार घुमाने लगा। अमीर की उँगलियाँ चट्टान से खिसक चुकी थीं, और यह सम्भव था कि वह फतह मुहम्मद के असह भार से डगमगा कर अतल तल में गिरकर चूर-चूर हो जाय, पर इसी समय रस्सी उसके हाथ आ गई। उसने लपक कर रस्सी पकड़ ली और दूसरे ही क्षण अमीर भी बुर्ज पर था। बुर्ज़ पर पहुँच कर उसने तलवार हवा में ऊँची करके 'अल्लाहो-अकबर!' का नारा बुलन्द किया। उसने कहा, “फतह, तेरी ही फतह रही!” और उसने फुर्ती से रस्सी एक गोख में बाँध दी। देखते-ही-देखते अनेक साहसी तुर्क योद्धा बुर्ज़ पर चढ़ आए। राजपूत वहाँ बहुत कम थे। उनमें दस-पाँच तो इसी क्षण कट मरे, बाद में नरसिंहा फूंककर उन्होंने दुर्ग में चेतावनी दी, तो चारों ओर से 'हर-हर महादेव!' करते बहुत-से राजपूत उधर दौड़ चले।
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