मृत्युंजय महमूद अमीर ने अविलम्ब दुर्ग पर धंसारा बोल दिया। उसका परम शत्रु भीमदेव और चाहना की बहुमूल्य वस्तु चौला देवी इस समय इसी दुर्ग में हैं, यह सूचना उसे मिल चुकी थी। और दोनों प्राप्यों को वह प्रत्येक मूल्य पर प्राप्त करने पर तुल गया था। जिस साहसिक प्रवृत्ति ने इस दुर्दान्त योद्धा को अजेय बनाया था, वह प्रवृत्ति आज उसके हृदय की लिप्सा और वासना से मिलकर अपरिसीम बन गई थी। आज तक अपने जीवन में वह हीरे-मोती की भूख तृप्त करता रहा था। परन्तु जबसे उसने चौला को देखा था-एक दूसरी ही भूख उसके रक्त में जाग उठी थी। आज रक्त के नद में सराबोर हो चुकने पर, महा-संग्राम को जय करने पर, वह भूख अपना भोजन प्राप्त करे–यह क्षण आ लगा था। इसके लिए अमीर अपने हज़ारों प्राणों का भी विसर्जन कर सकता था। इसलिए उसने एक क्षण को भी व्यर्थ न खोकर अपना प्राप्तव्य पा लेने या प्राण देने का संकल्प कर लिया। दुर्ग का भंग होना असम्भव था। वह चारों ओर से अत्यन्त दृढ़ और अजेय था। परन्तु महमूद भी दुर्जय योद्धा था। उसने अपने योद्धाओं को ललकार कर कहा, “बहादुरों! इन पत्थरों के उस पार गज़नी के अमीर की इज़्ज़त,गैरत और ज़िन्दगी कैद है,जो कोई सबसे पहले फसील पर चढ़कर पहला बुर्ज़ दखल करेगा उसे गज़नी का अमीर आधी दौलत देगा।" अमीर का यह वक्तव्य साधारण न था। दुर्दान्त दुर्जय तुर्क और बलूची योद्धा प्राणों की होड़ लगाकर सीधी फिसलने वाली चट्टानों पर चढ़ने लगे। पर अमीर इतने ही से सन्तुष्ट न हुआ। वह स्वयं भी अपनी सब गरिमा भूल चट्टानों पर साधारण सिपाहियों की भाँति चढ़ने लगा। कहीं रस्सियाँ पत्थरों में फँसाकर, कहीं आदमियों की पीठ का जीना बनाकर, कहीं बन्दर की भाँति खतरनाक उछाल मार कर, असंख्य योद्धा प्राणों को मोह छोड़ दुर्ग पर चढ़ने लगे। दुर्ग-द्वार भी भारी दबाव में पड़ा। ढेर के ढेर ज्वलनशील पदार्थों को द्वार पर लाकर जला दिया गया। चन्द्रमा के क्षीयमान प्रकाश में असंख्य टिड्डियों के दल की भाँति शत्रुओं को दुर्ग पर आक्रमण करते देख बालुकाराय बहुत व्यस्त हो गए। चौहान सामन्तसिंह नगर में घिर गए थे। और उनकी कोई सूचना नहीं मिली थी। वे जीवित हैं या मृत, इसका भी कोई निश्चय नहीं था। बहुत-से सैनिक उनकी सहायता को दुर्ग से बाहर भेज दिए गए थे। दुर्ग में बहुत कम सैनिक थे। उन्हीं को लेकर बालुकाराय दुर्ग-रक्षा की व्यवस्था करने लगे। परन्तु क्षण-क्षण पर दुर्ग के पतन की आशंका हो रही थी। प्रश्न दुर्ग के पतन का नहीं था-चौलारानी और महाराज भीमदेव की सुरक्षा का था। महता भी दुर्ग से बाहर थे। उनकी भी कोई सूचना नहीं मिल रही थी। अतः सारा भार इस नाजुक मौके पर अकेले बालुकाराय पर ही था। बालुकाराय भी प्राणों के मूल्य पर दुर्ग-रक्षा की आन ठान चुके थे। सच पूछा जाए, तो आज उनके जीवन का यह सबसे भयानक और कठिन संग्राम था। सारे ही योद्धाओं को पीछे धकेलकर अमीर और फतह मुहम्मद सबसे आगे पहुँच गए। दोनों में पहले कौन बुर्ज को आक्रान्त करता है-इसकी होड़ लग गई। ऊपर से तीर
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