पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३१६

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“नहीं माँ, मैं साथ चलता हूँ, आज न जाने कितनी माँ बिना पुत्र की हुईं, तेरा पुत्र मिल जाए तो मेरा फिर जीना भी सार्थक हो।" दोनों ने फिर लोथों का उलटना-पलटना प्रारम्भ किया। इस काम में सन्ध्या हो गई। परन्तु ब्राह्मणी का बेटा न मिलना था, न मिला। वृद्धा ने ठंडी सांस भर कर कहा, "ब्राह्मणी हूँ, बेटा, ब्राह्मण का धन सन्तोष है। अब सन्तोष ही करूँगी। चल, घर चलें।" सामन्त थकावट से चूर-चूर हो रहा था। अब और घूमना शक्य न था। वह बूढ़ी ब्राह्मणी की लाठी का सहारा ले फिर उसकी कुटिया में लौट आया। बूढ़ी ने कहा, “तू तनिक लेट पुत्र, देखू, गाय हाथ लग जाए तो दूध दुहकर गर्म करूँ।" वह व्यस्त भाव से बाहर की ओर चली। सामन्त बेदम होकर भूमि पर पड़ रहा। उसे गहरी नींद ने धर दबाया। जब वृद्धा ने उसे जगाकर लोटा-भर दूध दिया तो उसको पीने से बहुत बल मिला। उसने कहा, “माँ, आपने जीवन-दान दिया। क्षत्रिय का बालक हूँ, पर तेरा ही पुत्र हूँ। मेरा नाम सामन्त है। समय पर मैं फिर मिलूंगा-अभी मैं चला।" पर ब्राह्मणी ने उसे बहुत बाधा दी। इस रात्रि में जाने देना स्वीकार नहीं किया। परन्तु सामन्त ने कहा, “माँ, रुक नहीं सकता, एक बार किले में अवश्य जाऊँगा।" और वह लड़खड़ाते कदम रखता वहाँ से चला। दुर्ग निकट आने लगा। वहाँ किसी आदमी के होने का कुछ भी चिह्न न था। पद-पद पर वह हांफ रहा था, पर रुक नहीं सकता था। दुर्ग का फाटक टूटा हुआ था। वह किसी तरह पार करके भीतर पहुँचा। चारों ओर उसने देखा, किसी जीवित व्यक्ति का वहाँ कोई चिह्न भी न था। वह जितनी जल्दी सम्भव हो सकता था, पैरों की घसीटता हुआ महल की पौर पर बढ़ा। पौर का दरवाज़ा भी टूटा पड़ा था। उसे देखते ही उसका मन भय और आतंक से काँप गया। हे भगवान! महाराज भीमदेव और चौला देवी क्या उस दैत्य के भोग हो चुके। वह आर्तनाद-सा करता हुआ एक कक्ष से दूसरे कक्ष में, अन्धेरे में अन्धे की भाँति हाथ फैलाए, ‘देवी, देवी! महाराज, महाराज!' चिल्लाता हुआ उन्मत्त होकर दौड़ने लगा। उसे एक ठोकर लगी और वह दीवार से टकराकर, गिरकर मूर्छित हो गया। रात-भर वह उस शून्य दुर्ग में मूर्च्छित पड़ा रहा। जब मूर्छा भंग हुई, तब प्रभात का आलोक गवाक्ष में झांक रहा था। वह फिर अधीर होकर उठा। एक-एक कक्ष-गवाक्ष उसने देखे।आवास लूटा नहीं गया था।चौला देवी के बहुत-से वस्त्र-सामग्री वहीं थे। वह सबको उलट-पलट कर देखने और हाहाकार करने लगा। अब उसे इस बात का तनिक भी सन्देह न रहा कि महाराज भीमदेव और चौला देवी उस दैत्य के भोग हुए। परन्तु इसी समय उसकी दृष्टि दीवार पर कोयले से लिखे एक लेख पर पड़ी, लेख शोभना का लिखा था। जल्दी-जल्दी उसने लिखा था, “महाराज सुरक्षित आबू की राह हैं। बालुक साथ हैं। देवी एकाकी भूमार्ग से गई हैं। उनका अनुगमन और रक्षा होनी चाहिए। शोभना।" सामन्त की बांछे खिल गईं। जैसे जन्म-दरिद्री को निधि मिल गई। उसने इस बात पर विचार भी नहीं किया कि इस लेख को लिखने वाली शोभना कहाँ रही, उसकी क्या दशा बनी होगी। वह तेज़ी से भूगर्भ-मार्ग की ओर जाकर उसमें घुस गया। उस मार्ग से वह परिचित था। दुर्ग में आते ही उसे मार्ग का पता लग गया था, वह दूरदर्शिता के विचार से ।