मरीं। हवेली जलकर खाक हो गई। खम्भात के नगर-सेठ का पुराना घराना बरबाद हो गया। अब तुम्ही एकमात्र जीवित चिह्न हो। जाओ, जाओ, इतना उत्सर्ग मत करो, खम्भात के नगर-सेठ का खानदान युग-युग तक अमर हो गया-उसके वंश के दीपक को जीवित रहना होगा।" “सुनकर सन्तोष हुआ। मेरे पूज्य पिता ने और माता ने जो कुछ किया, वह उनका धर्म था। अब उनकी चिंता मिटी। अब हमारी बारी है, हमें अपना कर्तव्य करने दो। भाई, तुम चले जाओ, विनती करता हूँ, हा-हा खाता हूँ, तुम चले जाओ-तुम अपने कुल के अकेले सूर्य हो, जाओ-जाओ।" “यह असम्भव है। कंचन के साथ मरने का तुम्हारा कोई हक नहीं है, मेरा है। मेरा उसका जीव-जीवन का सम्बन्ध है; वह मेरी पत्नी है, मेरे साथ वह, उसके साथ मैं मरने- जीने के साझीदार हैं। तुम पागलपन मत करो भाई, चले जाओ।" “मैं ऐसा कायर नहीं हूँ कि तुम्हें और कंचन को, जिन्हें सदैव मैंने प्राण से भी प्यारा समझा है, मौत के मुंह में छोड़कर भाग जाऊँ, ऐसा ही है तो तीनों ही मरेंगे।" पूनमचन्द अब कंचनलता की ओर बढ़ा। कंचन चौधारे आँसू बहा रही थी और उसका मुँह एकदम सफेद हो गया था। पूनमचन्द ने उसके निकट पहुँच कर कहा, “कंचन प्रिये, लिहाज़-शर्म का तो यह समय नहीं है, तुम देवचन्द्र को समझाओ, वह चला जाए।" कंचन ने अपना कण्ठ-स्वर संयत किया। उसने कहा, “भैया, ये ठीक कहते हैं, तुम चले जाओ। पिताजी का वंश लोप नहीं होना चाहिए।" देवचन्द्र ने उसके मस्तक पर हाथ रखा, फिर कहा, “बहिन, बेसमझी की बात मत करो। तुम अच्छी तरह जानती हो कि संसार में मेरा तुम्हारे सिवा अब और कोई नहीं है।" फिर उसने एकाएक कुछ सोच कर कहा, “पूनम भाई, एक काम क्यों न किया जाए। कंचनलता बाहर जाए।" फिर उसने कंचन की ओर मुड़कर कहा, “सुनो बहिन, तुम जाकर अपने वृद्ध और दुखी ससुर की सेवा करना, और...' देवचन्द्र आगे न कह सके। उनका कण्ठ रुक गया। कंचनलता ने कहा, “मेरा स्थान तो इनके चरणों में है भाई, तुम जानते ही हो। तुम चले जाओ भाई, पैर पड़ती हूँ।" परन्तु देवचन्द्र ने कहा, “तुम सब मुझे कायर बनाने पर तुले हो, पर यह नहीं हो उसका दृढ़ शब्द सुनकर कंचनलता सोच में पड़ गई। पूनमचन्द आँखों में आँसू भरे उसे ताकता रह गया। कंचनलता ने अब प्रिय पति की ओर देखा, और संसार-भर की करुणा और अनुनय आँखों में भर कहा, “तुम्हीं मान जाओ, जीवित रहोगे, तो दोनों घरों का उजाला होगा। मैंने तुम्हारी कभी भी सेवा नहीं की, सिर्फ फेरों पर ही पल्ला पकड़ा था। तुम विवाह कर लेना, सुखी रहना।” इतना कह कर वह सब लोक-लाज छोड़ आगे बढ़ पूनमचन्द के वक्ष पर गिर फफक-फफक कर रोने लगी। पूनमचन्द ने कहा, “यह समय तो साहस और दृढ़ता का है, और तुम रोती हो?" “मैं पिताजी की बात सोच रही हूँ, वे बूढ़े और रोगी हैं, यह घाव वे कैसे सहेंगे।" “मैं उनकी आज्ञा से आया हूँ।" " . सकता।"
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