पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३३४

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स्वेच्छा बन्दी बन्दीवाड़े में एक ओर सिमटकर, प्राण दण्ड पाए हुए कैदी बैठे अपने जीवन की घड़ियाँ गिन रहे थे। कोई रो रहा था, कोई हँस रहा था, कोई पागल की भाँति अंट-संट बड़बड़ा रहा था। कोई गम्भीर मुद्रा में गुमसुम बैठा था। कंचनलता और देवचन्द्र सबसे पृथक् एक कोने में बैठे अपने दुर्भाग्य का सामना करने को तैयार बैठे थे। ठण्ड काफी थी। कंचनलता कुछ काँपने लगी, उसके दाँत कटकटाने लगे। देवचन्द्र ने कहा, “ठण्ड लग रही है कंचनलता, परन्तु कोई वस्त्र तो है नहीं, आग भी नहीं जलाई जा सकती।" वह खिसक कर अपने शरीर की गर्मी पहुँचाने को उससे सटकर बैठ गया। और कोई सहायता प्राप्त की जा सकती है या नहीं, इसके लिए वह इधर-उधर देखने लगा। इसी समय उसने झपटते हुए अपने बहनोई पूनमचन्द को अपनी ओर आते देखा। उसके मुँह से निकल गया, “अरे, तो क्या तुम भी पकड़े गए। परन्तु यहाँ तो केवल प्राणदंड...।" उसने संदेह और विषाद से भरी दृष्टि से बहनाई की तप्त कंचन जैसी मुखमुद्रा की ओर देखा। वह उठकर पूनमचन्द से लिपट गया। कंचनलता के अंग-अंग में पसीना आ गया। वह मूर्च्छित-सी होकर धरती पर झुक गई। दोनों ने यत्नपूर्वक उसे सम्भाला। फिर पूनमचन्द ने अपने कन्धे का शाल उतारकर कंचन का लगभग अर्धनग्न शरीर अच्छी तरह ढांप लिया। फिर फीकी हँसी हँसकर कहा, “देवचन्द्र, कैसा अद्भुत संयोग है। याद है, हम आज से प्रथम कब मिले थे? जब मैं तुम्हारी बहन को विदा कराने गया था, उस दिन की सुखद स्मृति आज भी कितना सुख देती है।" देवचन्द्र ने विषाद-भरे स्वर में कहा, "भाई, किया क्या जाए। प्रारब्ध में जो होता है, वही होकर रहता है। तब यदि बहन को विदा कर दिया गया होता, तो आज उसे यह दिन नहीं देखना पड़ता। पर, तुम कैसे पकड़े गए? क्या यहाँ भी पकड़-धकड़ शुरू हो गई?" "नहीं, वहाँ पाटन में चालीस गाँव के महाजन एकत्र होकर सारे बन्दियों को छुड़ाने का प्रयत्न कर रहे हैं। मैं उसी खटपट में तुमसे अब तक न मिल सका, आज मैंने सुना कि तुम्हें आज ही प्राणदंड दिया जाने वाला है, सो फिर न रह सका, चला आया।" "क्या स्वेच्छा से?" देवचन्द्र ने भय से पीला पड़कर कहा। “हाँ भाई, मुझे एक चीज़ मिल गई थी, उसी की मदद से। यह देखो।” उसने एक शाही मुद्रा दिखाई। “अब सुनो, समय कम है, अधिक बातचीत का भी अवसर नहीं। यह मुद्रा लो और प्रहरी को दिखाकर बाहर चले जाओ। मैं यहाँ कंचनलता के साथ हूँ।” यह कहकर मुद्रा उसने देवचन्द्र के हाथों में थमा दी। देवचन्द्र ने कहा, “यह कैसी बेवकूफी की बात है, तुम जान-बूझकर मृत्यु के मुख में घुस आए। नहीं, नहीं हमारे भाग्य में जो हो सो हो, तुम अभी, इसी समय बाहर चले जाओ, जल्लादों के आने में देर नहीं है।" “फजूल बात है। तुम्हें शायद अभी यह नहीं मालूम कि तुम्हारे पिता ने जीवित समाधि ले ली, और माता सब कुल स्त्रियों तथा परिवार के इक्कीस व्यक्तियों सहित जल