को छुड़ाने गए थे। दो-दो कैदी पांत में बैठाए गए। और दो-दो जल्लाद तलवार नंगी करके उनके सिर पर खड़े हुए। नगर-निवासी काँपते हुए इस भयानक दृश्य को आँख फाड़-फाड़ कर देखने लगे। बहुत-से चिल्ला-चिल्ला कर इधर-उधर भागने लगे। देर हो रही थी, पर एक तुर्की सरदार ललकार कर अधिकारी को रोक रहा था। उसके हाथ में सुलतान की तलवार थी। वह कह रहा था, “अभी ठहरो, अमीर नामदार का आखिरी हुक्म आने दो।” कहने की आवश्यकता नहीं, यह तुर्क सिपाही छद्मवेशी दामोदर महता थे। इतने ही में सेठों की टोली दौड़ती हुई आती दीख पड़ी। नगरसेठ ने दोनों हाथ उठाकर पुकारकर कहा, “ठहरो, ठहरो, भाइयो, तनिक ठहरो!" जैसे सूखे पर वर्षा गिरे, सबने आशा और सन्देह से देखा। जल्लादों की तलवार रुक गई। नगरसेठ ने सब बन्दियों की माफी का परवाना, झपट कर अधिकारी के हाथ में दे दिया। अधिकारी ने सुलतान का परवाना पड़ा। कुछ देर उसे उलट-पलटकर देखा, फिर उसने उच्च स्वर में पुकार कर कहा- “गुनाहगारो, खुदा का शुक्र मनाओ, आदिल-इन्साफ सुलतान ने मेहरबानी करके तुम सबको छोड़ दिया। खबरदार, आज के बाद कभी शाहेजलाल सुलतान के सामने हथियार न उठाना।" एक अतर्कित-अकल्पित आनन्द की किलकारियाँ हवा में भर गईं, जिनके साथ सुख के रुदन की सिसकारियाँ भी थीं। बात-की-बात में कैदियों के बन्धन खुल गए। बिछड़े हुए पिता-पुत्र, पति-पत्नी गले मिले। यम की डाढ़ से छुटकारा मिला। लोग हाथ उठा-उठाकर पागल की भाँति हँसने और रोने लगे। कैदी गुलाम-गीरी और मौत के पंजे से इस प्रकार छूटने पर भी जैसे विश्वास न कर सके। बहुत-से पागल की भाँति नाचने-कूदने लगे। अनहिल्ल-पट्टन उस दिन बहुत व्यस्त रहा। घर-घर में कैदियों के सत्कार-सेवा में मिष्ठान-पकवान, वस्त्र बंटते रहे। कैदियों ने स्नान कर क्षौर करवाया, नये वस्त्र पहने। नगरसेठ मानिकशाह ने सब सेठों की ओर से अन्न-वस्त्र-धन देकर उन्हें अपने-अपने घर भेजा। केवल तीन ऐसे कैदी थे, जो कैद से छुट्टी पाकर भी घर नहीं गए। वे अपने तन- बदन की सुध-बुध भूलकर दीन स्त्री-पुरुष कैदियों की सेवा-सुश्रूषा और व्यवस्था में हाथ बंटाते रहे। ये तीनों कैदी कंचनलता, देवचन्द्र और पूनमचन्द थे। वृद्ध मोतीचन्द शाह उस भीड़-भाड़ में पुत्र को ढूंढ़ते फिर रहे थे। अन्त में पिता-पुत्र मिल गए। तीनों ने सेठ के चरणों में मस्तक झुका दिया और सेठ ने उन्हें छाती से लगाकर मन का संताप दूर किया।
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