पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३५९

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"कितने!" “करोड़ कोरी।" अमीर का साँस रुक गया। गढ़ के कंगूरों पर चढ़े सैनिक ठठाकर हँस पड़े। प्रतापी विजयी सुलतान को जीवन में पराभव का यह पहला ही समय था। उसने तलवार ऊँची कर ताहर पर एक भरपूर हाथ मारा। ताहर ने घोड़ा कुदाकर उछाल भरी। उसने कहा, “बस कर, बेवकूफ, तू गज़नी का सुलतान है, और मैं कच्छ के रन का राजा, तेरे ऊपर घाव नहीं करूँगा, नाहक इन पहाड़ी बकरों को मत कटा। या तो कोरी भर, नहीं तो घोड़े से उतर।" इस समय अमीर के एक सरदार ने आगे बढ़कर तलवार से ताहर पर वार किया। अनजाने में कन्धे में घाव खा गया। फिर बिफरे हुए बाघ की भाँति उछल कर तलवार का एक तुला हुआ हाथ सरदार के सिर पर दिया। तलवार पगड़ी को चीरती हुई, खोपड़ी के दो टूक करती हुई छाती तक उतर गई। सरदार भूमि पर लोट गया। अमीर ने उच्च स्वर से कहा, “ खून-खराबी की ज़रूरत नहीं है, हम ताबे होते हैं।' वह घोड़े से वीर-दर्प से कूद पड़ा। ताहर ने कहा, “तू सवार रह और सब घोड़ों से उतर पड़ें। अपने हथियार भी रख दें।" देखते-देखते अमीर के सब सैनिक घोड़ों से उतर पड़े और अपने हथियार भी उन्होंने नीचे रख दिए। दुर्दान्त डाकू के साथियों ने कोतल घोड़ों की बाग मोड़ी, हथियार घोड़ों पर लादे और कैदियों को घेरकर चल दिए। चलती बार ताहर ने दुर्ग की रांग पर खड़े थानेदार को वालैकुम-सलाम कहा।"