नेता, अप्रतिरथ विजेता और प्रचण्ड योद्धा था, आज सुरसागर के तीर पर एकाकी, तारों की छांह में खड़ा, भूख की चिन्ता से चिन्तित, निरुपाय उस स्त्री का मुँह ताक रहा था, जिसका मूल्य उसकी नज़र में उसकी समूची बादशाहत से भी अधिक था। उसके कण्ठ से बात नहीं फूट रही थी। शोभना ने पेट पर हाथ रखकर हँसते हुए कहा, “पेट का बन्दोबस्त?" महमूद ने एक अंगूठी निकालकर कहा, “यह अँगूठी मेरे पास है, मगर यहाँ इसे मोल कौन लेगा?" “एक अशरफी मेरे पास भी है।” शोभना ने अशर्फी हथेली पर रखकर महमूद को दिखाई। अमीर ने सिर हिलाकर भुनभुनाते हुए कहा- "लेकिन इसका भुनाना इस वक्त ठीक नहीं है। लोगों को शक हो गया कि हमारे पास सोना है, तो अजब नहीं, हम लूट लिए जाएँ। फिर भी दो, मैं देखू।" अमीर ने शोभना के आगे हाथ फैला दिया। शोभना ने अमीर का हाथ अपनी दोनों नर्म-नर्म हथेलियों में लेकर कहा, “यह हाथ क्या कभी किसी के आगे इससे पहले फैला था?" "नहीं।" अमीर ने झुककर शोभना की कोमल हथेलियाँ अपनी आँखों से लगा लीं। आँसुओं से शोभना की अंजलि भर गई। धीरे-धीरे शोभना ने हाथ खींच लिया। उसने कहा- “आप ठहरिए, मैं जाती हूँ।” अमीर ने व्यस्त भाव से कहा, “नहीं बानू।' “कैदी हूँ, भागूंगी नहीं, लेकिन ब्राह्मण की बेटी हूँ। सुर-सागर तीर्थ में मेरे लिए भिक्षा की कमी नहीं है।" वह हँसी। अपनी हथेली से अमीर का वक्ष छुआ और तेज़ी से चली गई। और जब वह आई, उसके हाथ में एक हांडी में दूध,कुछ भात और रोटियां थीं। अमीर ने हथेलियों पर रखकर भोजन किया और सागर-तीर पर जाकर चुल्लू से पानी पिया। फिर उसने सांड़नी को भी जल पिलाया, आहार दिया। इस समय अमीर एक अत्यन्त कोमल भावुक भावना से ओत-प्रोत था। वह शोभना से दिल भर कर बात करना चाहता था। पर भावातिरेक से उसका कण्ठ अवरुद्ध था। शोभना का मुख चन्द्रमा की स्निग्ध चांदनी में अपूर्व सुषमा प्रकट कर रहा था। वह चौला की क्षण-भर देखी मूर्ति को विस्मृत कर चुका था। और अब उसके रक्त-बिन्दुओं में शोभना बसी थी, जो इस समय सुरसागर के एकान्त पाल पर स्निग्ध चांदनी में अलस भाव से अमीर महमूद के असमंजस को देख मुस्कराकर आत्मसमर्पण का निमन्त्रण-सा दे रही थी। और शोभना के अलभ्य प्यार की संपदा से सम्पन्न अमीर आज असहाय, एकाकी होने पर भी अपने को संसार का सबसे बड़ा बादशाह समझ रहा था। वह सब-कुछ खो चुका था और सब-कुछ पा चुका था।
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