उपसंहार और, खुदा का बन्दा महमूद और महमूद की बन्दिनी शोभना तारों की छांह में सांड़नी पर सवार हो, सुरसागर से एकाकी विविध वन, पर्वत, उपत्यकाएँ, नद-नदी, सरोवर, जन-जनपद पार करते हुए लाहौर की राह पर जा रहे थे। अकेली रातें, प्रभात और सान्ध्य बेलाएँ, जलती दोपहरी। हिंस्र पशुओं से भरपूर वन आते गए, जाते गए। सत्रह बार वह विजेता तलवारों की छाया में इसी राह आया था। आग और कहर बरसाता हुआ और आज वह जा रहा था एक औरत के आँचल की छाया में। लाहौर पहुँचकर उसने औलिया अलीबिन उस्मान-अलहज-बीसी की दरगाह में जाकर चौखट चूमी। चारों और बिखरे हुए उसके सिपाही, योद्धा, सिपहसालार, मन्त्री भी आ जुटे। महमूद ने सबके साथ सफ बाँधकर नमाज़ पढ़ी। सब अहवाल औलिया को सुनाया, सुनकर औलिया ने कहा, “महमूद, अब तू उस औरत से बात कर।" और महमूद ने औलिया के सपक्ष शोभना से दिल खोलकर बात की। शोभना ने कहा, “मैं शोभना हूँ, चौलादेवी नहीं। मैंने अमीर के वफादार सिपहसालार को कत्ल किया और अमीर को धोखा दिया है, अब शाहे-गज़नी जो सज़ा मुनासिब समझें, मुझे दें।" शोभना ने धीरे-धीरे सब हकीकत खोलकर सत्य-सत्य सुना दी। सुनकर अमीर देर तक मौन बैठा रहा। फिर उसने कहा, “मैं अमीर महमूद, खुदा का बन्दा, वही कहूँगा, जो मुझे कहना चाहिए। खुदा के बन्दे की नीयत बद थी, जिसकी सज़ा खुदा ने अपने बन्दे को दी। फिर उसने अपने रहमोकरम से तेरे आँचल का साया उसे दिया, जिसने महमूद को ज़िन्दगी, राहत और खुशी दी, अब ज़िन्दगी तेरे सदके।" महमूद ने ज़मीन तक झुककर शोभना का पल्ला चूम लिया। और ज़ार-ज़ार आँसू बहाने लगा। बहुत देर शोभना चुपचाप बैठी रही। फिर उसने भीगी पलकें उठाकर, कहा “अय शहनशाह, मैं एक बदनसीब औरत हूँ। लूटी हुई, बरबाद। और अब इतनी दूर आगे बढ़ आई हूँ, कि लौटने सब राह बन्द हो गई हैं। अब मेरे सामने एक बेकस और गरीब शहनशाह है। जिसने ज़िन्दगी में लिया ही लिया, दिया कुछ नहीं। और अब देखती हूँ, जो कुछ उसने लिया है, उसके बोझ से वह दबा जा रहा है। उसके दर्द को मैंने देखा है। जिसने दर्द सहा है, वह पराए दर्द को देख नहीं सकता। शहनशाह इसलिए, अपनी इस बन्दिनी की सज़ा कुछ नर्म कर सकें, और गज़नी के किसी कोने में पनाह दे सकें तो, यह बदनसीब शोभना इस खुदा के बन्दे मर्द के दर्द को जितना और जैसे बन पड़े, कुछ कम करने में अपनी ज़िन्दगी की बची हुई घड़ियां बिताए।" औलिया के मुँह से निकला, “मरहबा! मरहबा!” और उसकी सफेद दाढ़ी आँसुओं से तर हो गई। महमूद और झुका, उसने तलवार शोभना की गोद में डालकर कहा, “यह तलवार और इसकी बदौलत हासिल की हुई गज़नी की सल्लनत तेरी है। और तू अपने दर के भिखारी महमूद को उसी तरह अपने मुबारक हाथों से एक टुकड़ा रोटी देती रह, जैसा कि सत्रह दिन से आज तक देती आई है।"
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