पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३७३

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थे। उनकी दृष्टि में पाटन के मन्त्री की मर्यादा गुर्जराधिपति से कम न थी। फिर धार्मिक बन्धन से वे सब विमलदेव शाह से बँधे थे। उनके साथी भी मन्त्रीश्वर से सम्बन्धित थे। परन्तु भीमदेव भी अपनी आन पर अड़ गए। भीमदेव का व्यक्तित्व साधारण न था। उस तेजस्वी राजा की प्रथम आज्ञा का इस प्रकार न केवल उल्लंघन होना, अपितु सारे नगर और राजमहल तक का विरोधी हो जाना कोई साधारण बात न थी। उन्होंने कहा, “पाटन, पाटन की राजगद्दी और सब राज-परिजन त्यागा जा सकता है, पर चौलादेवी नहीं त्यागी जा सकतीं।” इस प्रकार यह प्रश्न एक प्रबल राजकलह का रूप धारण कर गया। और पाटन के रस-रंग पर फिर चिन्ता की एक काली छाया पड़ गई। महाराज ने दामोदर महता को राज गजराज लेकर चण्ड शर्मा के घर से चौला देवी को राजगढ़ में ले आने की आज्ञा दी। दामोदर महता राजाज्ञा मानकर गजराज ले चौलारानी की सेवा में उपस्थित हुए। सब विवाद चौला ने भी सुना। उसका सम्पूर्ण आत्म-सम्मान आहत हो गया। परन्तु न उसने एक बूंद आँसू गिराया, न मुँह से एक शब्द कहा। राजकलह के महत्त्व को उसने समझ लिया और दृढ़ संकल्प की सात्त्विक भावना से उसके नेत्रों में नई दीप्ति भर गई। दामो महता ने चौलादेवी को राजगढ़ चलने का निवेदन किया। महाराज ने राज गजराज सवारी को भेजा है, यह भी कहा। चौलादेवी ने सुनहरी झूल और मोतियों की झालरों से सुसज्जित अम्बारी पर, दिग्गज के समान विशाल राज गजराज पर एक दृष्टि डाली। एक स्मित रेखा उसके अधरों पर फैल गई। उसने धीरे से कहा, “मन्त्रीश्वर, महाराज श्री के बिना सूना राज गजराज सुशोभित नहीं है। प्रणाम-सहित मेरा यह निवेदन गुर्जरेश्वर के चरणों में निवेदन कर दीजिए।" दामो महता चौलादेवी के मर्म को समझ गए। वह चौलादेवी को प्रणाम कर लौट गए। सूना गजराज लौटा देखकर और चौलादेवी का मार्मिक सन्देश सुनकर महाराज भीमदेव लज्जित हो, अविलम्ब गजराज पर बैठ, स्वयं चण्ड शर्मा के घर पर चौलादेवी को राजगढ़ ले आने के लिए जा पहुंचे। चौलादेवी ने गुर्जरेश्वर की विधिवत् पूजा की। राजगढ़ चलने का प्रसंग आने पर कहा, “महाराज, आपके नेह से मैं सम्पन्न हूँ। राजगढ़ जाने का मुझे मोह नहीं। आपसे मैं दूर नहीं। राज-मर्यादा की भी एक सत्ता है, गुर्जरेश्वर को उसका विचार करना होगा। फिर नेह किया है तो टीस भी होगी, पीर भी होगी। अब टीस की पीर से, महामहिम गुर्जरेश्वर भी यदि साधारण पुरुष की भाँति कातर हो अपना मनोदारिद् य प्रकट करेंगे, तो फिर सोलंकी कुल की आन क्या रहेगी!" महाराज ने भर्राए कण्ठ से कहा, “प्रिये, सोलंकी कुल की आन रखने की शक्ति मुझमें नहीं है। राजगढ़ नहीं तो जहाँ जी चाहे, मुझे ले चलो। मुझे न राजगढ़ का मोह है न राज्य का।" "केवल एक स्त्री का मोह है?" चौला के होंठो में हास्य और आँखों में मोती थे। वह आगे बढ़कर महाराज के वक्ष से आ लगी। देर तक निस्तब्धता रही। किसी अचिन्त्य मूक भाषा में दोनों के हृदय एक-दूसरे को समझते-समझाते रहे। फिर चौला ने कहा- "महाराज, गुर्जरेश्वर से मेरी एक विनय है!" “कहो प्रिये!” 66