पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३७४

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66 “गुजरात के नाथ भगवान् सोमनाथ हैं। अभी तक वे अन्तर्धान हैं। दैत्य वे दलन कर चुके। अब उनका प्राकट्य होना चाहिए। एक क्षण भी गुजरात को देव-रक्षण से रहित न रहना चाहिए। देवपट्टन में चलकर अविलम्ब देव-प्रतिष्ठा होनी चाहिए।" "तो प्रिये, चलो, मेरा राज गजराज उपस्थित है ही, मैं इसी क्षण खड़ी सवारी देवपट्टन को प्रस्थान करता हूँ।" “महाराज की कीर्ति अमर हो। मेरा एक अनुरोध भी है महाराज!" "वह भी कहो” “गुर्जरेश्वर के शुभप्रस्थान के समय, मंगल-मुहूर्त के लिए स्वर्ण-कलश में तीर्थोदक ले, नगर की कोई कुमारिका नगर-द्वार पर खड़ी हो, ऐसी प्रथा है।" "है तो।" "तो महाराज, वह प्रतिष्ठा मुझ दासी को प्रदान की जाए।" भीमदेव का हृदय हाहाकार कर उठा। उन्होंने आँसुओं से गीली आँखों से चौला की ओर देखकर कहा, “जैसी तुम्हारी इच्छा प्रिये, तुमने अब जीवन को विसर्जन में लय कर ही लिया, तो अब कहने को क्या रह गया?" उन्होंने उसी क्षण देवपट्टन को प्रस्थान करने की आज्ञा दे दी। सहस्र वेदज्ञ ब्राह्मणों के सान्निध्य में विधिवत् देवपट्टन में नवीन लिंग की स्थापना हुई। प्राण-प्रतिष्ठा की गई। गगन राशि को भरुकच्छ से बुलाकर पाशुपत आम्नाय के अधिष्ठाता का पद प्रदान किया गया। शत-सहस्र कण्ठों से एक बार फिर 'जय सोमनाथ' की ध्वनि घोषित हुई और चौलादेवी के चरणों ने रत्नगृह के सभामण्डप में एक बार फिर देव- सान्निध्य में नृत्य किया। और राज गजराज पर आरोहण के पूर्व, जब गुर्जरेश्वर ने चौला के सम्मुख जाकर वाष्पावरुद्ध कण्ठ से कहा- "तो प्रिये, अब?" “विदा प्रियतम!" उसने अपनी मृणाल-कोमल भुज-वल्लरी गुर्जरेश्वर के कण्ठ में डाल दी। गुर्जरेश्वर चले गए, और चौलादेवी वहीं भूमि पर, जहाँ महाराज भीमदेव के चरण थे, अपना वक्ष रक्खे सिसकती पड़ी रह गई।