ही सही। नहले पर दहला अभी मैं इसी ऊहापोह में फँसा था, और उपन्यास के वही पुराने दस-बारह वर्ष पूर्व लिखे पाँच-छह परिच्छेद मेरे सामने थे, जिन्हें मैं जब-तब उमंग में आकर मित्रों को सुना दिया करता था। मेरे मित्र मेरा मज़ाक उड़ाया करते थे, कि इन परिच्छेदों का उल्लंघन करके 'वैशाली की नगरवधू' जन-जीवन में अपना स्थान पा चुकी। अब आपका यह ‘सोमनाथ' उसपर नहले पर दहला मारे तो बात है। इस ‘दहले' ने मुझे और भी दहला दिया। अभी तो श्री मुंशी ही का रुआब मारे डाल रहा था, अब इस ‘दहले' ने मेरी साँस ही रोक दी। परन्तु यह मेरे बस की बात तो थी ही नहीं। मैं आज भी यह नहीं जान पाया हूँ कि 'नगरवधू' में कितना सौष्ठव है। मैं निस्सन्देह उसपर मोहित हूँ, उसपर अपनी सम्पूर्ण साहित्यिक सम्पदा को वार चुका हूँ। परन्तु यह तो मैं कसम खाकर कह सकता हूँ कि उसकी जिस सुषमा पर मैं इतना मोहित हो गया हूँ, उसे मैंने अपने परिश्रम से निर्मित नहीं किया। मैं वास्तव में 'नगरवधू' का निर्माता नहीं, 'प्रकटकर्ता' हूँ। न जाने किस अचिन्त्य शक्ति ने वे भव्य मूर्तियाँ मेरी घिसी-घिसाई चालीस साल पुरानी कलम से व्यक्त करा दीं। भला मैं नगण्य कहाँ उन दिव्य मूर्तियों का निर्माण कर सकता था। परन्तु अब, यह नहले पर दहला? यह तो मित्रों की एक चुनौती थी। इसका यह स्पष्ट अर्थ था कि 'नगरवधू' से उत्कृष्ट ‘सोमनाथ' बन सके, तो ही ‘सोमनाथ' लिखना, नहीं तो नहीं। अब बताइए, इस चुनौती का क्या जवाब दूं? बस, मैंने फिर इसे लिखने का इरादा त्याग दिया। वही प्रारम्भिक पाँच-सात परिच्छेद पड़े थे, उन्हीं पर अपनी हसरत-भरी नज़र जब-तब डाल लेता था। कभी-कभी केवल इसी विचार से 'नगरवधू' के परिच्छेदों पर आँखें फैला देता था, कि आगे कहीं कलम चलाने की गुंजाइश है भी या नहीं। विभाजन का विभ्राट इसी समय विभाजन का विभ्राट मेरी आँखों के आगे आया। दिल्ली में रह कर दिल्ली और लाहौर के सारे लाल-काले बादल मैंने अपनी आँखों से देखे। कानों से अनहोनी बातें सुनीं। और विश्व के मानव-इतिहास का सबसे बड़ा महाभिनिष्क्रमण देखा। यह ऐसी बात नहीं थी, जिसे मैं देखू और दर-गुज़र कर दूं। कट्टरता के अभियोग से मैं हिन्दुओं को मुक्त नहीं कर सकता। परन्तु मैं उन्हें खूनी प्रकृति का तो नहीं स्वीकार करता। जिन्ना का ‘डाइरेक्ट ऐक्शन' और उसका सच्चा असली स्वरूप देख मैं समझ गया, कि चाहे बीसवीं शताब्दी का सभ्यकाल हो, चाहे चौदहवीं शताब्दी का, जंगली पठानों-खिलजियों और गुलामों का अंध- युग-मुस्लिम भावना तो खून में तर है और रहेगी। जब तक इसका जड़मूल से विनाश न हो जाएगा, इसकी खून की प्यास बुझेगी नहीं। यह सर्वथा मानव-विरोधिनी भावना है, जो सांस्कृतिक रूप से मुस्लिम समाज से दृढ़ बद्धमूल है। ज्यों-ज्यों पंजाब के अत्याचार,बलात्कार, उत्पात और लूटमार मेरे कानों में पड़ते जाते थे, मैं सुलगता जाता आरम्भ में यद्यपि मुझे बहुत कम बातों का पता लगा। परन्तु आगे चलकर जो कुछ था।
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