पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हुआ, उसकी एक भीतिमूर्ति मेरे मन में पहले ही अंकित हो चुकी थी। विभाजन से बहुत पूर्व ही से, समर्थ मित्रों से बहुधा कहा करता था कि किसी तरह पंजाब और सिंध से हिन्दू परिवारों को निकाल लाना चाहिए। बहुत मित्रों को मैंने तत्काल लाहौर छोड़ देने की सलाह भी दी थी। सन् 46 के मार्च में मेरा हिन्दी-साहित्य का इतिहास छपा और मैं उसी समय जनवरी-फरवरी-मार्च के लगभग लाहौर में रहा। मेरे प्रकाशक-मेहरचन्द लक्ष्मणदास, सैदमिट्ठा गली में रहते थे। यह मुहल्ला ही मुसलमानी आबादी में था। अपनी अंतिम यात्रा में मैंने लाहौर का वह स्वप्न देखा, जो विस्फोटोन्मुख ज्वालामुखी को होता है। स्टेशन से अपने इन मित्र के घर तक पहुँचना मेरे लिए अत्यन्त त्रासदायक हो गया। उस बार एक सप्ताह तक लाहौर में रहा, और अद्भुत वातावरण देखा। रणजीतसिंह की समाधि टूटी-फूटी थी। वहाँ ढेरों मलबा और घास-फूस जमा था, परन्तु बादशाही मस्जिद के गुम्बजों पर फिर से संगमरमर मढ़ा जा रहा था। मुझे ऐसा अनुभव हुआ, जैसे एक घर में दुलहन के ब्याह की तैयारियाँ हो रही हैं, दुलहन पर हल्दी चढ़ाई जा रही है और दूसरे घर में मुर्दा उठाने को पड़ा है। दो घटनाओं ने मुझे सत्य रूप का दर्शन करा दिया। एक दिन सुबह ही मैं पड़ोस के एक सैलून में जा बैठा, बाल कटाए। क्षण-क्षण में मुझे ऐसा भय हो रहा था कि यह नाई कहीं मेरा गला ही न काट डाले। लम्बे-चौड़े डील-डौल का पंचहत्था जवान था। बड़ी ही लापरवाही से कैंची, उस्तरा और ब्रुश चला रहा था। शुरू में मुझे गुस्सा आया, पर फिर मुझपर आतंक छा गया। मैं अपनी भूल समझ गया। अन्त में मैंने एक रुपया दिया और बकाया रेज़गारी वापस पाने को हाथ फैलाया। परन्तु वह जवान मुस्लिम नाई धूर्ततापूर्वक हँसकर बोला, “बाच्छा, तूने जो दिया सो दे दिया, अब चलता हो!” और मैंने चुपचाप होने ही में कुशल समझी। हजामत ठीक बन चुकी थी। इस प्रकार एक मेवे वाले से मैंने दो आने का एक संतरा लिया, और रुपया देकर बाकी पैसे माँगे, तो उसने रुपया गल्ले में डालकर और यह कहकर, कि “फिर कभी ले जाना।” मेरी ओर से रुख फेर लिया। निस्सन्देह यह सरासर डाकाज़नी थी वह भी बीच- बाज़ार। दुकानदार डाकू बने हुए थे। दूसरे दिन मैं वहाँ से चल दिया, और अपने मित्रों से लाख-लाख अनुरोध करता आया, कि वे तुरन्त लाहौर छोड़ दें। अन्त में जो होना था वहीं होकर रहा। परन्तु मैं भय, क्षोभ और आतंक से जैसे सराबोर हो गया और जिस दिन विभाजन हो जाने पर दिल्ली में स्वतंत्रता-दिवस मनाया गया-घण्टाघर पर शानदार रोशनी की गई-लाल किले पर तिरंगा फहराया गया मैं अपने घर के सब दरवाज़े बन्द करके चुपचाप पड़ा सिसकता रहा। उस रात को मैंने घर में दीप नहीं जलाया। दूसरे दिन अखबारों में पढ़ा, कि जब दिल्ली में घण्टाघर रोशनी से जगमग कर रहा था, लाहौर धांय-धांय जल रहा था। परन्तु इस साहित्यकार के आँसू किसने देखे, लाहौर की चिताभस्म में जैसे वे भी जल-मिल गए। भविष्य-दर्शन मैं लाहौर से चलते-चलते अपने हिन्दी-साहित्य के इतिहास के अंतिम पृष्ठों पर ये पंक्तियाँ लिख आया था, “महाकाल की गति अति विषम है, वह घड़ी के काँटे की भाँति ठीक-ठीक नपी-तुली गति से नहीं चलती। कभी वह मन्द हो जाती है, और कभी