पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३८०

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अधिक प्रभाव रहता था। परन्तु यह बात गुजरात ही में थी, राजस्थान में नहीं। और यद्यपि गुजरात के राजा राजस्थान के भी अंशत: स्वामी तथा सम्बन्धी रिश्तेदार थे, फिर भी राजस्थान-मालवा, ,सिन्ध और गुजरात के राजाओं में सहयोग के स्थान पर युद्ध और कलह का ही बोलबाला रहता था। ये हुई दो बातें तीसरी बात मेरी अपनी थी। मित्रों की चुनौती मुझे याद थी। वही, 'नहले पर दहले' वाली। 'नगरवधू' पर अभी भी मुझे मोह था। अम्बपाली,सोमप्रभ, बिम्बसार, चम्पा की राजकुमारी, कुण्डनी आदि असाधारण रेखाचित्र हैं। परन्तु सोमनाथ में तो मुझे नहले पर दहला मारना था, प्रभावशाली नए चित्रों की सृष्टि करनी थी। सबसे प्रथम मेरा ध्यान हिन्दुओं के रूढ़िवाद, अज्ञान, धर्मान्धता, कट्टरता तथा जाति-भेद और आत्म-कलह आदि पर गया। मैंने स्वीकार किया, कि इसी ने हिन्दुओं को दलित किया, पराजित किया है। मैंने इसकी प्रतिक्रियास्वरूप, दासीपुत्र देवा-देव स्वामी- फतह मुहम्मद की सृष्टि की। उसमें विद्रोह, तेजस्विता, शौर्य, प्रेम, कर्मठता, निष्ठा और दृढ़ता की मैं प्रतिष्ठा करता चला गया और, अपनी समझ में उसे मैंने उसी की अनन्य प्रेमिका के हाथ से वध कराकर उसके जीवन को सार्थक कर दिया। दूसरी जिस अलौकिक मूर्ति की रचना मुझे करनी पड़ी, वह है 'शोभना', एक बाल-विधवा ब्राह्मण-कुमारी। इस मूर्ति में मानवीय कोमलतम प्रेम की पराकाष्ठा की स्थापना करने की मैंने चेष्टा की। सत्साहस, दर्प, प्रत्युत्पुन्नमति, सेवा, दया, धर्म, कर्तव्य, औदार्य और आत्मार्पण की प्रतिष्ठा करने में मैंने अपनी धुंधली दृष्टि को न जाने कितनी बार एकबारगी ही अन्धा बना दिया। एक ही शब्द में, इस प्रियतमा युवती को मैंने अपनी सहृदयता के सम्पूर्ण आँसुओं में आचूड़ स्नान कराकर ही अपने पाठकों के सम्मुख उपस्थित किया है। जो स्त्री अपने एकान्त प्रेमी का सिर काट सकती है, और धर्म और मानवता के शत्रु को अपना निश्छल प्यार अर्पण कर सकती है, खतरे में निश्शंक दृढ़ता से आगे बढ़ती ही जाती है, उसको कितना प्यार दिया जाए, और कितनी उसकी पूजा की जाए, इसका निर्णय मैं नहीं कर सकता हूँ, आप ही वह निर्णय करें। मैंने तो चुपचाप गज़नी के दुर्दान्त महमूद को उसके आँचल की छांह में गज़नी की राह भेज दिया है। महमूद परन्तु निस्संदेह, वह अपने आँचल की छाँह में जिस महमूद को ले जा रही है, वह उसी का निर्मित पुरुष है, एक स्त्री का अपने हाथों पुरुष का निर्माण करना आसान बात नहीं है। महमूद का सच्चा चरित्र चाहे जो हो,वह एक दृढ़ योद्धा, आक्रान्ता और वीर पुरुष था। उसका जीवन ही कठिन अभियानों में बीता। पर उस व्यक्ति में मानवोचित गुण न थे, यह मैं कहने का साहस कैसे करूँ? निस्संदेह, जैसा कि मैंने पहले कहा, विभाजन की विभीषिका से प्रभावित मैंने सभी सम्भव अत्याचारों का आरोप इस अभियान के नायक महमूद पर किया है। परन्तु वह मेरी खीझ ही तो थी। कुछ हिन्दू होने के नाते नहीं, मनुष्य होने के नाते भी। इसलिए उस खीझ में आकर मैं एक ऐसे महान विजेता के साथ अत्याचार ही करता रहूँ, यह मेरी साहित्यिक निष्ठा नहीं। अतः मैंने अपनी सम्पूर्ण साहित्यिक कोमलता, भावुकता और प्रेम की सम्पन्नता उसे प्रदान कर दी। मुझे यह याद ही न रहा, कि