हुआ, और महायान सम्प्रदायों के विभाजन हो गए थे। परन्तु अशोक और कनिष्क का राजाश्रय मिलने से उसका विस्तार हुआ। कनिष्क के बाद भारत में बौद्ध धर्म का कोई पुरस्कर्ता न रहा, जिससे वह पतित होता चला गया। क्योंकि हीनयान का मार्ग अति दुष्कर था। महायान मत कुछ सरल था। महायान से मन्त्रयान का तृतीय पन्थ छठवीं शताब्दी में विकसित हुआ। उसके बाद वज्रयान। इन सब यानों में अनेक भ्रामक विचार प्रचलित होते चले गए और साथ ही अनेक प्रकार के अनाचार उनमें प्रचलित होते गए। उसका अन्तिम रूप कालचक्र यान का रूप बना, जिसमें भूत-प्रेत और पिशाच आदि की पूजा प्रचलित की गई। इस पंथ का गुरु जगदल-विहार का निवासी विभूतिचन्द्र था। इसी काल में बौद्धधर्म और शैव धर्म के कुछ तत्त्वों को लेकर, पंतजलि और बुद्ध के ध्येयों को लेकर नाथपन्थी योगियों का एक पन्थ चला। परन्तु बुद्ध और पंतजलि का मत तो मोक्ष अथवा निर्वाण के लिए था, जबकि नाथपन्थ का ध्येय ऐहिक सिद्धियाँ प्राप्त करना था। नाथ सम्प्रदाय और शैव तन्त्र यह सम्प्रदाय नेपाल और उसके आस-पास बहुत प्रचलित जिसमें गोरखनाथ की बड़ी प्रसिद्धि रही, जो पहले वज्रयानी बौद्ध साधु था, और जिसका नाम रमणबज्र था। इसी काल के लगभग बौद्ध धर्म में सहजयान सम्प्रदाय चला, जिसका प्रवर्तक कान्हपा था। यह सम्प्रदाय तिब्बत में अब भी प्रचलित है। इसमें तान्त्रिक विधि से वाममार्गी पूजा का प्रचलन तथा अवधूत-मार्ग, चाण्डाली-मार्ग और डोवी-मार्ग का प्रवेश हुआ। इन वाममार्गी बौद्धों के प्रभाव से शैवों ने भी तान्त्रिक मार्ग की स्थापना की। जिसमें शिव, शक्ति, भैरव, हनुमान, रुद्र, महारुद्र, अजिता, अपराजिता, उमा जया, चण्डी, खड्गहस्ता, त्रिदशेश्वरी, कपालिनी, घोरी, कपालमाला, परशुहस्ता, योगिनी, पचडाकिनी, भूत, पिशाच और बेताल आदि दुष्ट देवताओं का पूजन तान्त्रिक विधि से मन्त्र-तन्त्र, जपतप, यन्त्र, जारण-मारण आदि के द्वारा सम्पादित हुआ और उसके साथ ही मद्य-मॉस,व्यभिचार आदि दुराचारों का प्रवेश भी इस वाम धर्म में हुआ- दुष्करैर्नियमैस्तीत्रैः सेव्यमानो न सिद्ध्यति। सर्वकामोपभोगैस्तु सेवितश्चाशु सिद्ध्यति॥ एक समय ऐसा आया कि यह भ्रष्ट तान्त्रिक शाक्त मत बौद्धों, जैनौं और शैवों में प्रतिस्पर्धा की वस्तु बन गया। सिद्धि प्राप्त करने के लिए, श्मशान में मुर्दो के उपर बैठकर मन्त्र जपना, मलमूत्र का भक्षण करना, नर-कपाल में खाना-पीना, आदि अघोर कृत्य बहुत काम में लाए जाते थे, जिनका भयंकर भयपूर्ण प्रभाव जनता पर था। मन्त्र-सिद्धि से कीमियागिरी, पानी का दूध करना, आँख बन्द कर चुपचाप निश्चल समाधिस्थ बैठना, धूनी तापना, शून्य मार्ग से इष्ट स्थान पर जाना, भूकम्प उत्पन्न करना और मृतक को जीवित कर देना आदि भयंकर और अप्राकृतिक कार्य करना सिद्धि के लिए सम्भव माने जाते थे। इस प्रकार के सम्प्रदायों से एक कापालिक भी था। महाराष्ट्र के महाराज पुलकेशी तृतीय (ई. स. 610-39) के भतीजे नागवर्द्धन का एक ताम्रपत्र मिला है, जिसमें नासिक
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