और योग को भी ये मानते हैं। कापालिक और कालमुख दो इस सम्प्रदाय की उपशाखाएँ हैं, जो शिव-अनुयायी भैरव और रुद्र की उपासना करते हैं। इनके छह चिह्न हैं-माला, भूषण, कुण्डल, रत्न, भस्म और उपवीत। ये लोग मनुष्य की खोपड़ी में खाते तथा श्मशान-भस्म अंग में लपेटते हैं। उसे ही खाते भी हैं। एक डंडा और शराब का प्याला पास रखते हैं। और पात्र में स्थित देवता की पूजा करते हैं। इन्हीं बातों को वे ऐहलौकिक और पारलौकिक इच्छा-पूर्ति का साधन समझते हैं। वसुगुप्त ने इस सम्प्रदाय का मूल धर्म-ग्रन्थ 'स्पन्दशास्त्र' लिखा है, जिसकी टीका उसके शिष्य कल्लट ने जो अवन्ति वर्मा के राज्यकाल (ई. स. 854) में था-'स्पन्दकारिका' के नाम से की है। इसका मुख्य सिद्धान्त यह है कि परमात्मा मनुष्य के कर्मफल की अपेक्षा न कर अपनी इच्छा से ही किसी सामग्री के बिना ही सृष्टि की रचना करता है। ईसा की 10वीं शताब्दी में सोमानन्द के काश्मीर में शैव सम्प्रदाय की एक शाखा 'प्रत्यभिज्ञा-सम्प्रदाय' का प्रचार किया। उसने 'शिवदृष्टि' नामक ग्रन्थ भी लिखा। 2 12वीं शताब्दी में कलचुरि राजा विज्जल के काल में बसव नामक ब्राह्मण ने इस सम्प्रदाय की एक नई शाखा लिंगायत (वीर-शैव) मत चलाई, और 'बसव-पुराण' लिखा जो कन्नड़ भाषा में है। इसने जैनों को नष्ट करने का उद्योग किया। विज्जल राजा ने बसव को अपना मन्त्री बना लिया था। मन्त्री होने पर उसने बहुत द्रव्य राजकोष से खर्च कर जंगमों (लिंगायत धर्मोपदेशकों) को प्रचार-कार्य में नियुक्त किया। डाक्टर फ्लीट के मतानुसार इस सम्प्रदाय का प्रर्वतक एकान्त था; बसव एक प्रचारक मात्र था। ये जैनों के कट्टर शत्रु थे। यद्यपि इस सम्प्रदाय में अहिंसा को मुख्य स्थान प्राप्त था, परन्तु इन्होंने जैनों और उनकी मूर्तियों का निष्ठुरतापूर्वक उच्छेद किया। ये न वर्ण-व्यवस्था मानते थे न संन्यास या तप ही को मुख्यता देते थे। बसव का कहना था कि प्रत्येक को श्रम से कमाना चाहिए। सदाचार पर भी उसने पूरा ध्यान दिया था। भक्ति इस सम्प्रदाय की विशेषता थी और लिंग का चिह्न इस सम्प्रदाय का सबसे बड़ा चिहन था। इस सम्प्रदाय के लोग अपने गले में शिवलिंग लटकाए रहते थे, जो चाँदी की डिबिया में रहता था। उनका विश्वास था कि शिव ने अपने तत्त्व को लिंग और अंग में विभक्त किया था। विशिष्ट द्वैत से इस मत में कुछ समानता थी, परन्तु वैदिक मत से यह सम्प्रदाय बहुत बातों में मतभेद रखता था। यज्ञोपवीत की जगह इस सम्प्रदाय में दीक्षा संस्कार होता था जिसमें गायत्री के स्थान पर वे 'नम: शिवाय' कहते तथा यज्ञोपवीत की जगह गले में लिंग को लटकाते थे। तमिल प्रदेश के शैव भी जैनों और बौद्धों के कट्टर शत्रु रहे। इनके धार्मिक साहित्य के ग्यारह संग्रह हैं जो भिन्न-भिन्न समय पर लिखे गए हैं। सबसे अधिक प्रतिष्ठित लेखक तिरु ज्ञान सम्बन्ध हुआ, इसकी मूर्ति भी शैव मन्दिरों में तमिल प्रदेश में पूजी जाती है। तमिल कवि और दार्शनिक अपने ग्रन्थों के प्रारम्भ में उसी के नाम से मंगलाचरण करते हैं। बौद्ध धर्म और शैव धर्म बौद्ध धर्म की अवनति का वर्णन इतिहास में बड़ा विचित्र है। अनेक यानों में परिवर्तित होता हुआ यह धर्म, अनेक धर्मों की सृष्टि करता चला गया। यद्यपि बौद्ध धर्म की अवनति का आरम्भ तो बुद्ध के निर्वाण के तुरन्त बाद ही होने लगा था, और उसमें हीनयान
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