पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/४०८

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पुत्र भीमदेव दृष्टि न देने वाला बताता है।36 ऐसा ही सुकृतसंकीर्तन' काव्य भी कहता है।37 इससे दुर्लभदेव का न्यायी, सदाचारी और न्याय-रक्षक होना पाया जाता है । रत्नामालाकार ने कहा है, कि दुर्लभराज का कद लम्बा था। वह सेवाव्रती, ज्ञानवान् और कर्तव्यपरायण था। उसको तपस्वी के समान स्नान-ध्यान और गङ्गा-तट से प्रीति थी। वह युद्ध-प्रिय नहीं था।38 हेमचन्द्र ने लिखा है कि तत्त्व ज्ञानी दुर्लभराज ने एकान्तवाद को निर्मूल ठहराकर सत्यता ग्रहण की।39 इससे ऐसा मालूम होता है कि दुर्लभराज की जैन-धर्म की ओर भी आस्था थी। ‘प्रबन्धचिन्तामणि' में लिखा है कि दुर्लभराज अपने भाई नागराज को राजसिंहासन पर बैठाकर यात्रा की इच्छा से काशी गया। किन्तु जब वह मालव देश को पार करने लगा तो वहां के राजा मुंज ने उससे कहा कि या तो छत्र-चंवर आदि यहीं छोड़कर यात्री के वेश में जाओ, या मुझसे युद्ध करो। इस प्रकार धर्म कार्य-में विघ्न होने से अपना सारा हाल भीम को कहला भेजा और यात्री के वेश में काशी चला गया। तभी से लव और गुजरात में शत्रुता की जमी।40 परन्तु मेरुतुंग का यह कथन सत्य प्रतीत नहीं होता, क्योंकि द्वयाश्रय काव्य के प्रणेता हेमचन्द्र ने जो बात चामुण्डराज के सम्बन्ध में लिखी है, उसी को उसने दुर्लभराज के साथ जोड़ दिया। एक तो दुर्लभराज के काल में मालव का राजा मुंज नहीं, भोज था। दुर्लभराज का राज्यारोहण विक्रम सम्वत् 1050 और 1054 के बीच हो चुका था। फिर मालव के परमारों और गुजरात के सोलंकियों के बीच परम्परागत वैर का सिलसिला चामुण्डराज के समय से ही हो गया था। चामुण्डराज ने सिन्धुराज को मारा और मालव वालों ने चामुण्डराज को काशी जाते समय लूट लिया, और छत्र-चंवर आदि छीन लिये। इस पर वल्लभराज ने चढ़ाई की, और वहीं पर उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार इन दोनों राज्यों का वैर और पहले से आरम्भ हुआ था। हेमचन्द्र ने दुर्लभराज के राज्य को छोड़ने के विषय लिखा है, कि दुर्लभराज को तीर्थ में रहने की इच्छा थी, तो उसने नागराज के पुत्र भीमदेव की गद्दी देनी चाही। और दुर्लभराज तथा नागराज दोनों के समझाने से भीमदेव राजा हुआ।41 परन्तु हेमचन्द्र का यह कथन भी विश्वसनीय नहीं प्रतीत होता। दुर्लभराज और नागराज दोनों का राज्य का इच्छुक होना और भीमदेव के गद्दी पर बैठते ही उनका एक साथ स्वर्गवास हो जाना विचित्र नाटकीय घटना-सी है। फिर कुछ ऐसे प्रमाण भी हैं, कि जिनसे यह ध्वनित होता है कि दुर्लभराज ने अपनी इच्छा से राज नहीं छोड़ा, भीमदेव ने बलात् उससे राज्य छीना। अनेक विद्वानों का यह मत है। और हेमचन्द्र ने तो ऐसी ही बात चामुण्डराज के राज्य परित्याग के विषय में भी कही है। द्वयाश्रय काव्य के टीकाकार का तो यह स्पष्ट कथन है कि चामुण्डराज को राज्य-च्युत किया गया दुर्लभराज ने अनहिल्लपट्टन में दानशाला, हस्तिशाला, घटिका-गृह सहित सप्त भूमि वाला धवल गृह, मदनशंकर प्रासाद और दुर्लभ-सर नाम का तालाब बनवाया। फिर कुछ इतिहासकार दुर्लभराज को दम्भी और पाखण्डी कहते हैं। जैसा कि इतिहासकारों का कथन है-दुर्लभराज ने भी महमूद से युद्ध किया होगा क्योंकि महमूद ने सिद्धपुर का रुद्र महालय भी भङ्ग किया था। फिर दुर्लभ ने महमूद की अधीनता स्वीकार कर अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा भी नहीं की। गुजरात की प्रजा भी दुर्लभदेव को चाहती न थी, था।