भी स्त्रियाँ ऐसी अवस्था को प्राप्त होती हैं। कभी-कभी वे काम करती-करती एकदम मूर्छित हो गिर पड़ती हैं। आजकल इसे हिस्टीरिया रोग माना जाता है, परन्तु तब इसे ग्रह-बाधा या प्रेतावेश समझा जाता था। और चिकित्सक के स्थान पर ओझा तान्त्रिक बुलाए जाते थे। ये मन्त्र-बल से प्रेत को इन धागों से बाँध लाते थे तथा कालभैरव के सम्मुख इन्हें जलाते थे। इसके लिए उन्हें भारी-भारी दक्षिणा मिलती थी तथा यह इलाज आजकल के इलाज से अधिक खर्चीला था। इस समय सैकड़ों तान्त्रिक हाथ की लकड़ियों में अनगिन भूत-प्रेत-बैतालों को बाँधे, मन्त्र पाठ से उन्हें जलाकर वशीभूत किए लाए थे, और उन्हें जलाकर आवेशित जनों का पातक सदैव को काटते जा रहे थे। परन्तु ये भूत-प्रेत बड़े छलिया, बड़े मायावी होते हैं। तनिक एक साँस का अवसर पाते ही छूटकर भाग निकलते हैं और सीधे आवेशित स्त्री-पुरुषों के शरीर में छिप बैठते हैं। उनके लिए इन ओझा जनों को फिर से प्रयत्न करना पड़ता है; फिर उन्हें इन धागों में और भी कसकर बाँधना पड़ता है। इतनी सावधानी से यह प्रतापी देवता और उसके गण भूत-प्रेत आदि बाँध कर ले जाए जा रहे थे। फिर भी यह भय बना हुआ था कि उनमें से कोई छूटकर भाग न निकले। इतने दिन अदृष्ट रहने के बाद आज एकाएक रुद्रभद्र प्रकट हुए थे। वे शरीर पर भस्म लपेटे, त्रिपुण्डू लगाए, जटा बिखेरे, भारी शूल हाथ में लिए, नेत्र बन्द किए, देवता के आगे-आगे एक खुली पालकी में चल रहे थे। उनका अंग, जड़ के समान निस्पन्द था। केवल होंठ हिल रहे थे। उन्हें देख-देखकर लोग भय, विस्मय और श्रद्धा से हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहे थे। समुद्र-तट पर पहुँच कर कालभैरव को स्नान कराया गया। उनपर रक्त-चन्दन और रक्तपुष्प चढ़ाए गए और यज्ञ-मण्डप रचकर अघोर तान्त्रिक विधि से रौद्र यज्ञ किया गया। यहाँ मोती का सिंहासन बनाकर भैरव की स्थापना की गई थी।अंधकारमयी अर्द्धरात्रि थी। चारों ओर का दृश्य अद्भुत और भयानक रस का मिश्रण था। ठौर-ठौर पर तान्त्रिक जन बकरा, कुक्कुट, भैंसा, सुअर आदि बलि लिए खड़े थे। एक महाकृष्णवर्ण व्यक्ति लाल लंगोटा कमर में लपेटे, बड़ा भारी खाण्डा हाथ में लिए रक्त के कीचड़ में खड़ा था। उसके आगे एक लकड़ी धरती में गड़ी थी, जो डेढ़ हाथ के लगभग ऊँची थी। उसमें एक छेद था तथा ऊपरी भाग में एक गढ़ा था। लोग अपने-अपने पशुओं को खींचते-धकेलते, कोई गोद में लिए उसके पास आते। एक ताँबे की मुद्रा पारिश्रमिक देते तथा पशु की गर्दन लकड़ी के गढ़े में फँसाकर लोहे की छड़ अटका देते। उसी क्षण भारी खांडा पड़ता; सिर छिटक कर पृथक हो जाता और धड़ छटपटाने लगता। सिर को अधर, एक जालीदार छींके में प्रथम ही ओट लिया जाता था। गहरे लाल रंग के रक्त की धार बहती। और सिर देवता के चरणों में अर्पित होता, तथा पशु के धड़ को घसीट कर साधक ले जाते। उसे उधेड़ते, खण्ड-खण्ड करते। दूर तक समुद्र-तट पर यही हो रहा था। इधर-उधर, यहाँ-वहाँ सैकड़ों जन दो-दो, चार-चार मिलकर पशुओं को उधेड़ तथा उनके अंग-अंग काट-काटकर, मांस टोकरी में भर- भर कर ले जा रहे थे। काल भैरव के सम्मुख पशुओं के कटे हुए सिरों का ढेर लग गया था तथा मद्य की नदी बह रही थी। लोग प्रसाद का मद्य पी-पीकर उन्मत्त हो रहे थे। वे रक्त का टीका मस्तक पर लगा, गटागट छककर घड़े की मद्य पी, कवच मन्त्रपाठ करते-करते कोई- कोई उन्मत्त की भांति उछल-कूद करने, किसी शस्त्र से अपने ही अंग पर प्रहार करने लगे थे,