अजयपाल का धर्म-संकट मुलतान के चौहान राजा अजयपाल बड़े धर्मसंकट में पड़ गए। लाहौर के जाग्रत वीर औलिया अली बिन उस्मान अलहज़वीसी ने उन्हें संदेश भेजा था कि-"गज़नी का सुलतान मुलतान की राह अपने रास्ते खुदा के हुक्म से जा रहा है, उसे जाने दे। इसमें दरेग करेगा तो तुझ पर और तेरी औलाद पर कहर नाज़िल होगा।" महाराज अजयपाल इस संदेश से व्याकुल हो गए। वे सिन्धुनद के दिग्पाल थे। गज़नी के इस लुटेरे को वे अच्छी तरह जानते थे। परन्तु अभी तक मुलतान की ओर उसकी दृष्टि नहीं पड़ी थी। जब से लाहौर के महाराज जयपाल ने अग्नि प्रवेश किया था, महमूद ने सदैव लाहौर होकर ही सोलह अभियान किए। मुलतान का उल्लंघन करने का यह पहला ही अवसर था। इस बार उसे गुजरात को आक्रान्त करना था। इसलिए वह लाहौर न जाकर मुलतान की राह सीधा मरुस्थली को पार कर सपादलक्ष जाना चाहता था। यद्यपि महाराज अजयपाल को अभी तक यह पता न था कि सुलतान किस अभिप्राय से इधर से अभियान कर रहा है, फिर भी धर्म केन्द्रों के इस शत्रु की प्रवृत्ति वह जानते थे। उनके सामने दो कठिनाइयाँ थीं। एक यह कि लाहौर के इस औलिया की आज्ञा का उल्लंघन वे नहीं कर सकते थे। उस वृद्ध मुसलिम फ़कीर पर इनकी श्रद्धा के तीन कारण थे। एक यह कि इसी की कृपा, सिफारिश और सहायता से उसे मुलतान का राज्य प्राप्त हुआ था। दूसरे, उसके आशीर्वाद ही से उसे एकमात्र पुत्र उपलब्ध हुआ था। तीसरे यह कि ये औलिया बड़े पहुँचे हुए खुदापरस्त और बेलौस साधु प्रसिद्ध थे। यह कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि वे सुलतान के भेदिए हैं। उनकी आज्ञा खुदा की आज्ञा समझी जाती थी और वे यदि किसी भक्त को कोई आदेश देते थे, तो यह समझा जाता था कि यह उसकी भलाई के लिए ही होता था। और यह बात स्पष्ट ही सत्य प्रतीत होती थी, क्योंकि सुलतान की अथाह सेना से लड़ना आत्मघात था। उसके सामने घोघाबापा की तेजस्वी मूर्ति आई। वह सोचने लगा-समय पर मैं घोघाबापा को क्या मुँह दिखाऊँगा? क्या मैं उन्हें सूचना दूं? उनसे परामर्श करूं, परन्तु इतना समय कहां है? फिर यदि उन्होंने युद्ध का ही परामर्श दिया और ऐसा तो वे करेंगे ही। वे वीर पुरुष हैं, मरुस्थली के भीष्म हैं। वे यह थोड़े हो विचारेंगे कि आगे-पीछे क्या होगा। वे तो सच्चे योद्धा हैं। कर्तव्य पर मिटना उनका मूल मन्त्र है। मैं क्या उन्हें जानता नहीं। महाराज अजयपाल भारी धर्मसंकट में पड़े। वे कुछ भी निर्णय न कर सके। उन्होंने बहुत सोच-विचार कर गुप्तरूप से लाहौर की यात्रा करने की ठानी। अपनी तलवार और एक विश्वासी सेवक को ले एक अँधेरी रात में लाहौर की राह पर घोड़ा छोड़ा। औलिया ने उनसे बहस नहीं की, अधिक बात भी नहीं की। वह जैसा विद्वान और तेजस्वी प्रसिद्ध था, वैसा ही दम्भी भी था। बिना दम्भ के धर्म और सिद्धि का कारबार चलता भी नहीं, फिर इस फकीर पर तो सुलतान के गूढ़ आदेश थे। जब राजा ने विनम्र भाव से अपनी कठिनाई साधु के सामने रखी और नेक सलाह माँगी तो औलिया ने केवल इतना
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