मुलतान के द्वार पर गज़नी से कूच किए अभी पूरा एक महीना भी नहीं बीता था कि अमीर ने मुलतान के द्वार पर बाग रोकी। काबुल की विकट घाटी पार कर सिन्धुनद जैसी अगाध नदी के पार उतर, और उजाड़ रेगिस्तानों को लांघकर केवल एक मास के अल्पकाल में शत्रु देश के एक समृद्ध राज्य की सीमा में निर्भय घुस आना, कोई साधारण काम न था। पर महमूद के लिए यह एक मनोरंजक खेल था। मुलतान सिन्धु के मुख पर अति प्राचीन नगर है। उसका प्राचीन नाम मूलस्थान था। सम्भवत: आर्यों ने जब भारत-प्रवेश करके पञ्चसिन्धु में अपना प्रथम राज्य कायम किया था, तब इस नगर की बुनियाद पड़ी हो। मुलतान में सूर्यदेवता का प्रसिद्ध मन्दिर था, जिसके दर्शन-पूजन के लिए देश-देश के यात्री निरन्तर आते रहते थे। यह मन्दिर कभी समूचा स्वर्ण का बना था, परन्तु जिस काल की हम बात कह रहे हैं, उस काल में भी उसका वैभव अतोल था। यह कैसे हो सकता था कि महमूद-जैसे लुटेरे और उसके डाकू साथियों की लोलुप गृध्रदृष्टि उसपर न पड़ती। परन्तु मुलतान ने बिना विरोध और बिना शर्त सुलतान को केवल आत्म-समर्पण ही नहीं किया, अपितु वहां के राजा ने बहुमूल्य भेंट लेकर अमीर का अभिनन्दन किया। यह एक चमत्कार ही कहा जा सकता था। जिसने सुना उसी ने चमत्कृत हो दाँतों तले उंगली दबाई। परन्तु इस चमत्कार के भीतर जो चमत्कार था, उसे तो केवल अमीर ही जानता था। बिना प्रयास मुलतान को ताबे होते देख अमीर बड़ा प्रसन्न हुआ। इसे उसने एक शुभ शकुन समझा। अमीर की अवाई सुनकर बहुत जन भयभीत हो नगर छोड़कर भाग खड़े हुए थे। अमीर के बर्बर लुटेरे मुलतान को लूटने को अधीर हो रहे थे। किन्तु हज़रत अली बिन उस्मान ने सुलतान को कहला भेजा था कि मुलतान को कदापि लूटा न जाए और महाराज अजयपाल से मित्रवत् व्यवहार किया जाए। अमीर ने औलिया को ऐसा ही आश्वासन, कृतज्ञता सहित भेज दिया था। अमीर महमूद जैसा साहसी योद्धा और कुशल सेनापति था, वैसा ही विलक्षण राजनीतिज्ञ भी था। मुलतानपति महाराज अजयपाल की उसने एक दरबार करके धूमधाम से अभ्यर्थना की और उसे बराबर बैठाकर कुशलक्षेम पूछा। वास्तव में महाराज अजयपाल अपने काम पर लज्जित थे। उनका कार्य चाहे जितना भी राजनीतिमूलक और बुद्धिमत्ता का था, पर निन्दनीय तो था ही। सबसे बड़ा भय उनको घोघाबापा का था, जिनके शौर्य और बड़प्पन के आगे अजयपाल को सदैव झुकना पड़ता था। अमीर की यह अभ्यर्थना उसे विष के समान लगी। और वह बड़ी देर तक अमीर सम्मुख आँखें नीची किए बैठा रहा। किन्तु अमीर ने राजा के मनोभावों को ताड़ लिया। उसने खुशामदभरे स्वर में कहा, “महाराज, जैसे मैं दुश्मनों के लिए सख्त हूँ, वैसा ही दोस्तों के लिए नर्म। आपसे मैं
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