घोघाबापा मरुस्थली के सिर पर घोघागढ़ नामक एक छोटा-सा किला था। किला एक ऊँची और सीधी खड़ी हुई अगम चट्टान की चोटी पर था। दुर्गम गिरि पर विराजमान गरुड़ की भाँति वह छोटा-सा दुर्ग उस समय बहुत महत्त्व रखता था। बिना इस दुर्ग की दृष्टि में पड़े कोई इस मरुस्थली में प्रविष्ट नहीं हो सकता था। गढ़पति चौहान कुलशिरोमणि वीर घोघा राणा थे। घोघा राणा अति वृद्ध थे। उनकी आयु नब्बे को पार कर रही थी। परन्तु उनकी दृष्टि सतेज और कण्ठस्वर वज्रघोष के समान गम्भीर था। घोघा राणा बड़े वीर और धर्मपरायण थे। अपने उदात्त गुणों और वयोवृद्ध होने से वे आसपास सर्वत्र राजवर्ग में तथा सर्वसाधारण में घोघाबापा के प्रिय नाम से चिर विख्यात थे। घोघाबापा का रंग गौर, कद लम्बा तथा शरीर छरहरा था। इतनी आयु में भी उनकी कमर नहीं झुकी थी। उनकी धवल गलमुच्छेदार मूंछे, उनके तेजस्वी चेहरे पर अत्यंत शोभायमान प्रतीत होती थीं। वे मन के शुद्ध, हँसमुख और सरल पुरुष थे। वे मरुस्थली के महाराजा कहाते थे। घोघाबापा के परिवार में पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, दौहित्र, सब मिलाकर बयासी पुरुष थे। ज्येष्ठ पुत्र का नाम सज्जन सिंह था। सज्जन सिंह की आयु इस समय पैंसठ को पार कर रही थी। उसमें पिता के सब गुण विकसित हुए थे। वह एक उत्कृष्ट योद्धा और सच्चरित्र पुरुष थे। सज्जनसिंह के केवल एक पुत्र था इसकी आयु पच्चीस या छब्बीस वर्ष की थी। यह युवक अति सुन्दर, सुकुमार और साहसिक था। घोघाबापा सबसे अधिक इसे ही प्यार करते घोघाबापा के इष्टदेव सोमनाथ थे। उन्होंने सोमनाथपट्टन से महादेव का लिंग लाकर गढ़ के मध्य में बड़ी धूमधाम से प्रतिष्ठित किया था। इस मन्दिर की पूजा-अर्चना घोघाबापा के कुलगुरु ब्राह्मण नन्दिदत्ता करते थे। नन्दिदत्त बड़े विद्वान् और सच्चरित्र पुरुष थे। उनकी आयु भी सत्तर से ऊपर हो चुकी थी। नन्दिदत्त ही घोघाबापा के राज्य-मन्त्री, पुरोहित, गुरु और प्रिय मित्र थे। घोघाबापा जब क्रुद्ध होते और जब कोई भी उनके निकट नहीं जा सकता था, तब नन्दिदत्त ही उनके सम्मुख बात करने का साहस कर सकते थे। नन्दिदत्त ने ही सज्जन और सामन्त दोनों को अक्षराभ्यास कराकर शस्त्र का अभ्यास कराया था। घोघागढ़ में कुल आठ सौ राजपूत और तीन सौ अन्य पुरुष थे। सब मिलाकर सात सौ स्त्रियाँ थीं। बच्चे भी थे। ये सब, राजा और प्रजा, इस मरुस्थली के शीर्षस्थल पर एक सम्मिलित परिवार की भाँति रहते थे। घोघाबापा अपनी प्रजा के राजा न थे, पिता थे। प्रत्येक के छोटे-छोटे दुख-सुख का भी उन्हें बहुत ध्यान रहता था। गज़नी के अमीर की अवाई सुनकर घोघागढ़ में भी उत्तेजना और चिन्ता की लहर फैल गई थी। घोघाबापा कानों से कुछ उँचा सुनते थे। यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं थे।
पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/८२
दिखावट