गढ़वी को और कुछ कहने का साहस नहीं हुआ। वह सिर झुकाकर तेज़ी से चल दिया। क्षण भर बाद ही वह छोटी-सी गढ़ी विविध रणबाजों की तथा जयनाद की ध्वनि से गूंज उठी। गढ़ में भाग-दौड़ मच गई। बेटे-पोते और सम्बन्धी एवं सब क्षत्रिय शस्त्र चमकाते हुए महादेव के मन्दिर के आँगन में आ जुटे। घोड़ों और ऊंटों की हिनहिनाहट और बलबलाहट से कान के पर्दे फटने लगे। घोघाबापा ने नित्यकर्म से निवृत्त हो ज़री का बागा पहना, सिर पर केसरी पाग बांधी। मस्तक पर कुंकुम तिलक लगाया। कमर में दुहरी तलवार बाँधी। परन्तु उनकी आँखें नन्दिदत्त को ढूंढ रही थीं। नन्दिदत्त अभी तक भी सपादलक्ष से लौटे न थे। घोघाबापा का मस्तक चिन्ता से सिकुड़ गया। वे होंठों में बड़बड़ाते बोले, “गढ़ गढ़वी का, अमीर मेरा और अन्त:पुर कुलगुरु नन्दिदत्त का। परन्तु नन्दिदत्त कहाँ है? अब अन्त:पुर किसे सौंपा जाए?" घोघाबापा ने घबराई दृष्टि से इधर-उधर देखा। सम्मुख बदहवास नन्दिदत्त दौड़े आ रहे थे। उनके वस्त्र और दाढ़ी धूल में भरी थी। वे चढ़ी सवारी सीधे राजा के पास आकर बोले, “महाराज यह सब क्या? महाराज, महाराज!" उन्होंने दोनों हाथों से मुँह ढांप लिया। वे धरती में बैठ गए और उनकी आँखों से आँसू झर चले। राणा उन्हें देखते ही हर्ष से चिल्ला उठे। उन्होंने कहा, “नन्दिदत्त जी खुद आए। अब सुनो, काम बहुत और समय कम है। हाँ, पहले धर्मगजदेव की बात तो कहो।" “अन्नदाता! महाराज धर्मगजदेव पुष्कर के मैदान में शत्रु की राह रोके बैठे हैं। उन्होंने कहा है, "बापा चिन्ता न करें। यदि अमीर बापा की चौकी लाँघकर यहाँ तक आया तो जीवित नहीं लौटेगा।" घोघाबापा की बाँछे खिल गईं। उन्होंने कहा, “अब सुनो, तुम हमारे कुलगुरु और राज्यमन्त्री हो। अत: मेरा अग्निसंस्कार तुम स्वयं अपने हाथों करना, और सज्जन और सामन्त में से कोई जीवित लौट आए तो उसका राजतिलक उसी भाँति करना, जिस भाँति आज से सत्तर वर्ष पूर्व तुम्हारे पिता ने मेरा किया था।" इतना कहकर वृद्ध व्याघ्र ने हाथ से आँख के कोरों में आया एक आँसू पोंछ डाला। नन्दिदत्त की धवल दाढ़ी आँसुओं से भीग गई थी। उन्होंने कहा, "अन्नदाता! यह कैसी आज्ञा! भला यजमान का रुधिर गिरे और कुल-पुरोहित भू-भार होकर पृथ्वी पर जीवित रहे?" "नहीं-नहीं, यह बात नहीं है, नन्दिदत्तजी! परन्तु आप सब शास्त्रों के ज्ञाता महाज्ञानी पुरुष हैं। आपने देश-देशान्तर भ्रमण किया है। आप भली भाँति जानते हैं कि मेरा जीवन-योग तो कभी का पूरा हो गया था। भगवान् सोमनाथ को यह अभीष्ट है कि इस दास की मृत्यु कृमिकीट की भाँति न हो, वे इस अधम को धूमधाम से कैलासवास कराना चाहते हैं। मैंने जो नब्बे वर्ष भगवान की एकनिष्ठ सेवा की, आज मेरा वह सब पुण्य फलेगा। अब आप अपने कर्तव्य को निबाहना। अन्त:पुर आपका है, यह न भूलना। अवसर उपस्थित होने पर विधि-विधान से चौहान कुल-वधुओं का अग्निरथ-अभियान सम्पन्न कराना।" इस बार सिंह की भाँति ज्वलंत नेत्रों से उन्होंने कुंकुम-अक्षत के थाल हाथों में
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