पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/९१

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सजाए चौहान कुलांगनाओं को झरोखे में खड़े देखा। फिर उच्च स्वर से कहा, “चलो पुत्रियों, हम आज कैलास-गमन करते हैं। तुम सब हम से प्रथम वहाँ पहुँचकर इसी प्रकार अक्षत- कुंकुम से हमारा सत्कार करना। इसमें अब देर नहीं है। कुछ ही घड़ी की बात है।” कुमारियाँ मंगल गान कर उठीं। नन्दिदत्त ने आगे बढ़कर कुंकुम का तिलक राणा के मस्तक पर लगाया और उच्चस्वर से कहा, "हे नरशार्दूल, यावच्चन्द्र-दिवाकर तेरा यश अमर रहे!" बाहर सेना में जयनाद हुआ। राणा ने अश्व-पूजन कर अश्वारोहण किया। रंग-महल से ताज़े पुष्प बरसाए गए। सब कोई मन्दिर के प्रांगण में एकत्र हुए। राणा ने देवार्चन किया। नन्दिदत्त ने देव- निर्माल्य राजा को दिया। घोघाबापा ने कहा- “सेवक, दुकानदार और बीमार सब पहले गढ़ से बाहर चले जाएँ और भी जो कोई प्राण बचाना चाहे, स्त्री-पुत्रों सहित, तथा जो सामग्री ले जाना चाहे, लेकर चला जाए।" बड़ी देर तक राणा ने प्रतीक्षा की, परन्तु एक भी व्यक्ति जाने को राजी नहीं हुआ। राणा ने एक दृष्टि चारों ओर फेरी, सर्वत्र केसरी पागें हिलोरें ले रही थीं। राणा ने राघवमल्ल गढ़वी को पुकारकर कहा, “राघव! द्वार खोल दे वीर, गढ़ तेरा है!" राघवमल्ल ने तलवार दाँत में दबाकर कहा, “नहीं अन्नदाता, मैं चरणों में हूँ, गढ़ गुरुदेव ही को समर्पित कीजिए।" “तब ऐसा ही हो। नन्दिदत्त जी, गढ़, अन्त:पुर और हमारी कुलमर्यादा आपके हाथ रही।" नन्दिदत्त बिना एक शब्द कहे भीड़ में घुस गए और अपने युवा पुत्र को साथ ले, राजा के सामने आकर कहा, “महाराज, आपकी सब आज्ञाओं का मैंने पालन किया। मैं आपका कुलगुरु हूँ, मुझे अब इस बेला गुरु-दक्षिणा दीजिए।" “माँग लीजिए, गुरुदेव! आपके लिए कुछ अदेय नहीं है।" “अन्न्दाता! यह मेरा पुत्र अपनी शरण में ले जाइए। मुझे गुरुतर भार सौंपकर साथ चलने से आपने रोक दिया है। मैं राजाज्ञा का पालन करूँगा, परन्तु मेरा पुत्र आपके साथ ही रक्तदान देगा। यद्यपि वह शस्त्रविद्या का पारंगत नहीं है, पर युवा है, सशक्त है। शत्रु एकाएक इसे मार न सकेगा।" "नहीं, नहीं, नन्दिदत्त जी, आपका वंश..." "उसकी चिन्ता नहीं महाराज, मेरे पास मेरा पौत्र है, उसे मैं रख लूँगा, भगवान सोमनाथ साक्षी हैं।" राजा घोड़े से उतर पड़े। उन्होंने तरुण ब्राह्मणपुत्र को छाती से लगाया। अपनी तलवार उसकी कमर में बाँधी, फिर अपने घोड़े पर हाथ का सहारा देकर उसे चढ़ाते हुए "चलो पुत्र, जो सौभाग्य मेरे सज्जन को नहीं प्राप्त हुआ, वह तुम्हें हुआ।" जय-जयकार से दिशाएँ गूंज उठीं। हल्का चीत्कार करके दुर्ग के फाटक खुल गए और विषधर सर्प की भाँति फुफकार मारती यह मर मिटने वाले वीरों की छोटी-सी मण्डली, घोघागढ़ के सिंह-द्वार के प्रभात की प्रथम किरण में स्नानपूत हो, रणांगण में कहा,