पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/९३

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नन्दिदत्त का पुरुषार्थ गढ़ में अकेले नन्दिदत्त ही एक पुरुष थे। उनके ऊपर कठिन कर्तव्य का भारी भार था। बड़ी कठिनाई से उन्होंने एक दासी को राज़ी करके अपने तीन वर्ष के पौत्र को गढ़ से बाहर भेज दिया। फिर पुल को तोड़ गढ़ के द्वार भीतर से भलीभाँति बन्द कर वे अपनी आवश्यक व्यवस्था में जुट गए। गढ़ में जितना ईंधन और ज्वलनशील पदार्थ उपलब्ध हो सके, सबको ला-लाकर उन्होंने मन्दिर के प्रांगण में एक विशाल चिता की रचना आरम्भ कर दी। उनका थका हुआ बूढ़ा शरीर परिश्रम से टूक-टूक हो गया, परन्तु उन्हें जो काम करना था, वह तो करना ही था। अन्त:पुर में सभी स्त्रियाँ एकत्रित थीं। आज उनमें छोटी-बड़ी का भेद भी न था। प्रत्येक ने नख-शिख से शृंगार किया था। वे सब पूजा के थाल हाथों में सजाए, नारियल, कुंकुम और पुष्पों से गोद भरे, कुल-पुरोहित नन्दिदत्त के आदेश की प्रतीक्षा में बैठी थीं। सब आवश्यक सामग्री जुटाकर, घी, तेल और कपूर के डलों को यथास्थान चिता में उपस्थित करके नन्दिदत्त बुर्ज पर चढ़कर युद्ध की गति देखने लगे। उनके देखते ही देखते चौहान वीर और वीरों के शिरोभूषण घोघाबापा धराशायी हुए। उन्होंने भूमि पर अपना सिर पटक मारा। बहुत देर तक वे मूर्छित पड़े रहे, फिर होश में आकर वे पागल की भाँति लड़खड़ाते हुए अन्त:पुर की ओर चले। उनके कानों में घोघाराणा के ये शब्द गूंज रहे थे, "अन्त:पुर तुम्हारा।” अन्त:पुर के द्वार पर आकर उन्होंने पुकार लगाई, “चलो बेटियों, अब हमारी बारी है।" मंगलगान करती हुई नारियल उछालतीं और मार्ग में फूल बखेरतीं , पूजा के थाल हाथों में लिए सात सौ स्त्रियाँ पंक्तिबद्ध आगे बढ़कर मानिक चौक में बनी चिता के चारों ओर आ खड़ी हुईं। नन्दिदत्त की आँखों से चौधारा आँसू बह रहे थे। परन्तु उन्होंने सबके भाल को कुंकुम, चन्दन से अर्चित किया। सबने अक्षत-पुष्प से चिता का पूजन किया, सूर्य को अर्घ्य दिया। कुलदेवता को प्रणाम किया और अपने-अपने पतियों के स्मृति-चिह्न गोद में लेकर चिता पर आ बैठीं। चिता आरोहण से प्रथम नन्दिदत्त की पुत्रवधू ने मूकभाव से ससुर के चरण छुए। यह देख नन्दिदत्त कटे वृक्ष की भाँति पृथ्वी में गिर गए। कुछ देर में वे उठे। अभी कठिन कार्य तो शेष ही था। उनका अंग थर-थर काँप रहा था और वाणी जड़ हो रही थी। आँखें आँसुओं से अँधी हो रही थीं। फिर भी उन्होंने टूटे-फूटे स्वर में मन्त्रोच्चारण किया और काँपते हाथों से चिता में आग दे दी। चिता अग्निवाहक पदार्थों के संयोग से धांय-धांय जलने लगी। बहुत-सी अबोध बालाएँ ज्वाला की वेदना न सहन कर चीत्कार कर उठीं। एक भयानक क्रन्दन, असह्य दर्द और न देखने, न सहने योग्य वेदना से ओत-प्रोत हो नन्दिदत्त स्वयं चिता में कूदने को उद्यत हो गए, परन्तु अभी उनका कर्तव्य पूर्ण नहीं हुआ था। अभी घोघाबापा का शरीर रणक्षेत्र में पड़ा था। उसे वहाँ से लाकर अग्नि संस्कार करना शेष था। वे वहीं, चिता के निकट भूमि पर गिर गए। उन्हें गहरी मूर्छा ने घेर लिया। वह